*आसक्ति का भाव ही परिग्रह है:गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि*

संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया की 18 पापों में पांचवा पाप है परिग्रह। परिग्रह में परि का अर्थ है चारों ओर से, और ग्रह का अर्थ है पकड़ना ,यानि चारों ओर से पकड़ना परिग्रह कहलाता है। मन, वचन,काया द्रव्य और भाव से संग्रह वृद्धि में जीना परिग्रह होता है।
एक भावना होती है दैवीय भावना, जिस भावना में अपनी वस्तु भी दूसरों को देने की, त्याग की भावना होती है। यानी कि तुम्हारा तो तुम्हारा ही है,मगर जरूरत हो तो मेरा भी तुम रख लो ।
दूसरी भावना होती है मानवीय भावना कि तुम्हारी वस्तु तुम्हारी है, और मेरी वस्तु मेरी है। मुझे भी तो जीवन जीना है। इस भावना में संग्रह तो होता है लेकिन संग्रह पर ममत्व नहीं होता है।
तीसरी भावना होती है दानवी भावना ,यानी मेरा तो मेरा है ही, मगर तेरा भी मेरा है ।यानी दूसरा का अधिकार भी छीन लेना।
इन तीनों भावनाओं में दैवीय भावना सबसे श्रेष्ठ और दानवी भावना सबसे निकृष्ट भावना है।
परिग्रह के विषय में आचार्य उमास्वाति ने बताया “मूर्च्छा, आसक्ति ही परिग्रह है”। आसक्ति छोटी या बड़ी किसी भी वस्तु की हो सकती है। भावों से एक अरबपति व्यक्ति भी अपरिग्रही हो सकता है। और आसक्ति के भाव के कारण एक झोपड़ी में रहने वाला गरीब व्यक्ति भी परिग्रही हो सकता है।
हमारे यहां पर दो प्रकार के नय बताएं गए हैं निश्चय नय और व्यवहार नय ।निश्चय नय में आसक्ति को परिग्रह बताया है ।और व्यवहार में जो ज्यादा वस्तुओं का संग्रह करता है वह परिग्रही कहा जाता है।
आसक्ति की भावना जड़ और चेतन दोनों पर हो सकती है जड़ यानी सोना ,चांदी ,मकान, दुकान ,जमीन ,जायदाद आदि अजीव वस्तुएं और चेतन यानी पुत्र,पुत्री,शिष्य आदि। आज देखा जाता है कि व्यक्ति जड़ के लिए जीव से विवाद करने को तैयार हो जाता है। राज्य एवं संपत्ति के लिए पिता पुत्र को पुत्र पिता को भाई-भाई को मरवा देता है।
आसक्ति का मतलब ही कहता है कि जो आ सकती है, लेकिन जा नहीं सकती। दुनिया का ऐसा कौन सा पाप होगा जिसको यह आसक्ति नहीं करवाती है।
तेल को स्नेह भी कहा जाता है। जहां पर स्नेह होता है वहां पर चिपकाव भी होता है, और साधना के मार्ग में जितना स्नेह में रहोगे ,उतना फिसलने की, गिरने की संभावना रहेगी ।और जितना स्नेह को दूर रखेंगे उतना साधना में आगे बढ़ पाएंगे। अतः अपने आप को आसक्ति के भावों से दूर हटकर परिग्रह के पाप से बचने का प्रयास करें ,तो शांति ,समाधि और आनंद को प्राप्त कर सकेंगे।
नियमित रूप से चौमुखी पंचासन भक्तांबर स्रोत की साधना, प्रवचन प्रतिक्रमण एवं संवर साधना के कार्यक्रम गतिमान है।
धर्म सभा को पूज्य श्री सौम्यदर्शन मुनी ने भी संबोधित किया।
धर्म सभा का संचालन बलवीर पीपाड़ा ने किया।
पदमचंद जैन

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