संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महाराज ने फरमाया कि पाप की दुनिया का त्याग करके धर्म की दुनिया में प्रवेश करने का प्रयास धर्म की दुनिया में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को अपनी पात्रता को बढ़ाना होगा,क्योंकि पात्रता के आधार पर ही पेमेंट व उत्तरदायित्व की प्राप्ति होती है। धर्म करने वाले को पारितोषिक वह पाप करने वालों को दंड का भागी बनना पड़ता है।18 पाप के माध्यम से 9वे पाप लोभ पर चर्चा चल रही थी कि ऐसा कौन सा पाप है जिसे यह लोभ नहीं करवाता है लोभ के लिए व्यक्ति अपने परिजनों तक की हत्या कर देता है। जमीन में गड़े धन को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपनी संतान की बलि भी चढ़ा देता है। दुर्योधन यदि श्री कृष्ण के समझाने पर पांच गांव पांडवों को दे देता तो शायद महाभारत का युद्ध नहीं होता।यह लोभ भी एक तूफान के समान है, जब भी आता है, अपने पीछे बहुत बड़ी तबाही को छोड़ जाता है। श्रेणिक महाराज जैसी पवित्र आत्मा को भी उनके बेटे कोणीक ने सत्ता के लालच में जेल में डाल दिया ,और रोजाना 500 कोड़े मारता था। बुखार को थर्मामीटर से,दूध को लीटर से मापा जा सकता है, मगर लोभ को मापने का थर्मामीटर क्या है? तब भगवान ने फरमाया की लोभी व्यक्ति की पहचान है कि, वह हर पल असंतुष्ट ही रहता है। कितना कुछ भी क्यों नहीं मिल जाए, उसे तो बस और चाहिए।
दूसरी पहचान है की लोभी lव्यक्ति की प्रवृत्ति कंजूसी की रहती है मधुमक्खी शहद इकट्ठा करती है दूसरों के लिए ,और आपको देखकर भी यही लगता है कि आप भी इकट्ठा कर रहे हैं दूसरों के लिए। कंजूस व्यक्ति न तों खुद खाता है और न ही
दूसरे को खाने देता है। तीसरी पहचान है कि वह दान नहीं दे सकता है।मगर इस धन की तीन गति बताई गई है।दान, भोग और नाश।अगर धन को दान और भोग में नहीं लिया जाता है तो यह तीसरी गति नाश को प्राप्त हो जाती है।
लोभ के परिणाम बताए हैं। लोभी व्यक्ति तनाव, घुटन व अवसाद का जीवन जीता है। वह हरदम भयभीत बना रहता है।लोभ जहां पर भी रहता है, वहा हमेशा संघर्ष की स्थितियां ही बनी रहती है। लोभी व्यक्ति को सबसे दूर रहकर एकाकी जीवन जीना पड़ता है।
लोभ से बचने के उपाय भी बताए गए हैं,कि व्यक्ति अपने जीवन को मर्यादित सीमित करने का प्रयास करें। यानी अपनी आवश्यकताओं पर नियंत्रण करते हुए प्रयास करें।एवं संतोष की भावनाओं को जीवन में अपनाने का प्रयास करें,कि मेरे घर में जो भी आय आए वह न्याय पूर्वक ही अर्जित की गई हो।ताकि तन,मन और जीवन की स्वच्छता बनी रहे।इसी के साथ भूतकाल में व अब तक के जीवन में हुए लोभ संबंधी पापों की परमात्मा की साक्षी से गुरुदेव की साक्षी से वह अपनी आत्मा की साक्षी से मिच्छामी दुक्रम देते हुए प्रायश्चित करने का प्रयास करें।अगर ऐसा प्रयास व पुरुषार्थ रहा तो यत्र तत्र सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा।
नवकार मंत्र का अखंड जाप नियमित रूप से गतिमान है श्रावक श्राविकाओं का उत्साह प्रशंसनीय है ।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन
*मनीष पाटनी,अजमेर*