संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि बहुत प्यारा सूत्र आपके सामने चल रहा था, कि मनुष्य जन्म पाना किसका सार्थक होता है। साधना के पावन मार्ग में बढ़ने वालों का ही मनुष्य जन्म लेना सार्थक होता है। यह जीवन तो पूर्व कर्मों की निर्जरा करने के लिए मिला है। पोतलपुर नरेश का प्रसंग सुन रहे थे कि उनकी पुत्री राजकुमारी जब विवाह योग्य होकर सज धज कर दरबार में आती है, तो वह उसके रूप पर मोहित हो जाते हैं। प्रजा जनों को वचनों के जाल में वचनबद्ध करके वह उसे अपनी पटरानी बनाते हैं। उनसे उत्पन्न पुत्र त्रिपुष्ट के रूप में भगवान के जीव का 18वां भव था।उस भव में त्रिपुष्ट जंगली क्रूर सिंह और प्रति वासुदेव अश्वग्रीय का पराभव करके वासुदेव बनते हैं।
उत्तराध्यन सुत्र का विवेचन करते हुए पूज्य श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि 19 वे अध्ययन का नाम मृगापुत्रिय हैं इसमें मृगा पुत्र का वर्णन है वह साधु को देखकर जातिस्म्रण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, और दीक्षा ग्रहण करने के लिए मन से दीक्षा की आज्ञा मानता है। तब मां उनको संयम की कठिनाइयों को बताते हुए कहती है कि जैसे लोहे के चने दातों से चबाना कठिन है, समुद्र को भुजाओ से पार करना कठिन है। सुमेरु पर्वत को तराजू में तोलना कठिन है और अग्नि शिखा को मुख से पीना कठिन है।इस प्रकार यौवन अवस्था में संयम का पालन अत्यंत कठिन है। मृगा पुत्र मां से कहता है की जिसको भोगों की, संसार के पुद्गलों की प्यास होती है उसके लिए संयम कठिन होता है। जिसको इस संसार की आसक्ति नहीं, उसके लिए स्वयं मुश्किल कहां है। मैंने नारकी में अत्यंत दुखों को भोगा है, भूख की, प्यास की अनंत वेदना सही है। परमाधामी देव नारकी जीवों को कुंभियों में से काट काट कर निकालते हैं।पापों की याद दिला दिलाकर अपना ही खून व मांस खिलाते हैं ।वहां पर 10 प्रकार की अनंत वेदनाओं को मैंने अनेक बार सहा है। उसके सामने तो संयम के कष्ट कुछ भी नहीं है। वह केचुकी से निकले सर्प के समान संयम जीवन को स्वीकार कर मुक्ति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है।
20वां अध्याय महानिर्ग्रंथ्य है।इसमें अनाथी मुनि व श्रेणिक महाराज का प्रसंग है। अनाथी मुनि के रूप से आश्चर्यचकित होकर श्रेणिक महाराज उनसे दीक्षा का कारण पूछते हैं,तो वह कहते हैं कि मैं अनाथ था।तब श्रेणिक महाराज कहते हैं कि मैं तुम्हारा नाथ बनता हूं। तब श्रेणिक महाराज से अनाथी मुनी कहते हैं कि आप स्वयं अनाथ है,तो मेरे नाथ कैसे बन सकते हैं? तब राजा उससे संसार की अनाथता को समझता है कि रोग और मृत्यु के आने पर कोई जीव को शरण नहीं दे सकता है।सच्ची सनाथता तो संयम में ही है। संयम लेने के बाद भी शुद्ध निर्दोष संयम का पालन करने वाला ही सनाथ हो सकता है। संयम ग्रहण करके भी संयम में दोष लगाने वाला, अशुद्ध रीति से संयम पालने वाला भी अनाथ ही रहता है।
राजा श्रेणिक अनाथी मुनि से सम्यकत्व को प्राप्त करके जैन धर्म को स्वीकार करते हैं।हमें भी भगवान के सूत्रों को जीवन में अपना कर जीवन परिवर्तन का प्रयास करना चाहिए।
मूल सूत्र का पाठ पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने किया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन