*समभावो से कष्ट सहन करने पर ही कर्म की निर्जरा संभव: गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि*

संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि प्रभु महावीर ने चंदनबाला के हाथों से आहार लेकर उसका उद्धार किया। तब मूला सेठानी अपनी गलती के लिए चंदनबाला से क्षमा याचना करती है। राजा शतानिक को भी जब यह मालूम पड़ता है कि यह मेरे साढू भाई राजा दधीवाहन की पुत्री चंदनबाला उर्फ वसुमति है,तो वह भी सारी घटना का जिम्मेदार स्वयम को मानता है।चंदनबाला से क्षमायाचना करता है,और भविष्य में कभी भी राज्य लिप्सा के लिए युद्ध नहीं करने के लिए वचनबद्ध होता है। शकेंद्र महाराज राजा शतनिक को फरमाते हैं कि भगवान जब केवल ज्ञान को प्राप्त करके तीर्थ की स्थापना करेंगे तब चंदन वाला भगवान के पास दीक्षित होगी। तब तक आप इन्हें अपने यहां रखें।
प्रभु अपनी साधना क्रम में आगे बढ़ जाते हैं ।एक बार प्रभु ध्यान में थे ।तब एक ग्वाला उन्हें बैलों का ध्यान रखने की बोलकर कहीं चला गया। वापस आया तो बैल नहीं थे। तब पूर्व भव के बैर के कारण क्रोधित होकर उसने लकड़ी की किले बनाकर भगवान के कानों में ठोक दी।भगवान ने उस अपार कष्ट को बड़े समता भाव के साथ सहन किया।
एक बार सिद्धार्थ सेठ के कहने पर खरक नामक वैद्य ने प्रभु महावीर का निरीक्षण किया तो कानों में किले देखकर चीख उठा की किस निराधम ने प्रभु के कानों में कीले ठोक दी है। प्रभु जब ध्यान में थे तो सिद्धार्थ सेठ एवं विभिन्न लोगों की सहायता से अथक परिश्रम करके खरक वैद्य ने वह कीले बाहर निकाली। तब जाकर हृदय में अतीव प्रसन्नता का अनुभव करते हैंकि आज प्रभु की पीड़ा समाप्त हुई.इस कष्ट को समभाव से सहन करके प्रभु ने अपार कर्मों की निर्जरा की। कुल साढ़े 12 वर्षों के साधना काल में 11 वर्ष 6 माह 25 दिन तक प्रभु तपस्या में रहे और 11 माह 25 दिन पारने के आए। प्रभु का जीवन हमें समता की साधना करने की पावन प्रेरणा देता है।
गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने दसवेकालिक सूत्र के दसवें अध्ययन व चूलिका का विवेचन करते हुए फरमाया कि भिक्षु कौन होता है? जो जप,तप,संयम,साधना में निरंतर पुरुषार्थ रत होता है वह सच्चा भिक्षु होता है। जो साधना में निर्भय बना रहता है। समभाव की साधना करता है, वही भिक्षु कहलाता है।संयम को छोड़ने वाले की हालत धोबी के कुत्ते के समान हो जाती है। दूसरी चुलिका महासती यक्षा जी को महाविदेह क्षेत्र से तीर्थंकर भगवान द्वारा दी गई है।इसमें बताया गया है कि व्यक्ति को हर पल यह चिंतन करना चाहिए कि मैंने अब तक क्या किया है, और मेरे लिए क्या करना शेष रहा है ।जो कार्य मेरे करने योग्य था,वह मैंने किया या नहीं। ऐसा चिंतन करके साधना करने योग्य कार्य में प्रवृत्ति करें। अगर प्रभु के बताए मार्ग को जीवन में स्वीकार कर पाए तो हमारा यह जिनवाणी सुन पाना सार्थक सिद्ध हो सकेगा।
कल चातुरमासी पर्व पर अधिक से अधिक त्याग तपस्या व संवर पोषद करने की प्रेरणा प्रदान की गई। वक्ताओं ने विदाई गीतों के माध्यम से भावभीनी विदाई देने का प्रयास किया।
धर्म सभा का संचालन बलवीर पीपाड़ा व हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन

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