जब डॉ. गोखरू का कुछ नहीं हुआ तो डॉ. मीणा का क्या होगा?

jln 02संभाग के सबसे बड़े अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय में एक बार फिर भर्ती मरीजों से बाजार से दवा मंगाने का मामला सामने आया है। जेएलएन मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अशोक चौधरी ने निरीक्षण के दौरान पाया कि डॉक्टर सी.के. मीणा की यूनिट में भर्ती मरीजों को वार्ड से दवा देने के बजाय बाजार से मंगवाई जा रही है। चौधरी ने मामले को गंभीर मानते हुए जांच के आदेश दिए और कहा कि मरीजों की शिकायत के कारण उजागर हुए इस प्रकरण में डॉ. मीणा से स्पष्टीकरण मांगा जाएगा। जाहिर सी बात है कि निर्धारित प्रक्रिया के तहत की मामले की जांच होगी, जिसका नतीजा क्या होगा, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि इससे पहले भी अस्पताल के कार्डियोलॉजी विभाग में हुए इसी प्रकार के गोरखधंधे में जांच के बाद क्या कार्यवाही हुई, यह आज तक पता नहीं लग पाया है। इसमें रेखांकित करने वाली बात ये है कि उस गोरखधंधे को तो राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन के एमडी डॉ. समित शर्मा ने ही पकड़ा था, जिनको निशुल्क दवा योजना लागू करने का श्रेय दिया जाता है।
असल में सरकारी जांच प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी है कि अमूमन घोटालों व गोरखधंधों की जांच टांय टांय फिस्स हो जाती है और समय बीतने के साथ लोग भी उसे भूल जाते हैं। यहां आप को बता दें कि कार्डियोलॉजी विभाग में हुए दवाओं के गोरखधंधे के मामले में विभाग के प्रमुख डॉ. आर. के. गोखरू पर लगे आरोप तकनीकी पेच में ही उलझ गए थे। उसकी वजह ये समझी गई कि निशुल्क दवा योजना के लिए जो नियम बने हुए हैं, उसमें और इस योजना का संचालन व निगरानी करने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन को दिए गए अधिकारों में कुछ अस्पष्टता है, जिसे कभी स्पष्ट नहीं किया गया।
हालांकि डॉ. गोखरू प्रकरण में गठित हाईपावर कमेटी ने जांच कर रिपोर्ट राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन के एमडी डॉ. समित शर्मा को भेज दी, जिस पर कार्यवाही का आज तक पता नहीं लग पाया, मगर इस मामले में डॉ. गोखरू क जो रवैया रहा, उससे ही लग गया था कि जरूर कहीं न कहीं उनके बचने का ग्राउंड मौजूद था। तभी तो उन्होंने जेएलएन मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य एवं नियंत्रक डॉ. पी. के. सारस्वत की ओर से दिए गए कारण बताओ नोटिस का जवाब देना जरूरी नहीं समझा। वस्तुत: उन्होंने यह पेच फंसाया था कि उनके खिलाफ जिस मामले में जांच की जा रही है, उसमें एक सामान्य फिजीशियन सही निर्णय नहीं कर सकता। इसके लिए हृदयरोग का विशेषज्ञ होना जरूरी है। अर्थात उन्हें इस बात का अंदाजा है कि यदि कमेटी में हृदयरोग विशेषज्ञ होंगे तो वे डॉ. गोखरू की ओर से सुझाए गए इंजेक्शन की अहमियत को स्वीकार करेंगे। इससे यह भी आभास हुआ कि डॉ. गोखरू के पास अपनी ओर से सुझाये हुए इंजैक्शन को ही लगाने के दमदार तकनीकी आधार थे, जिसके बारे में कार्पोरेशन के पास स्पष्ट नीति-निर्देश नहीं थे। उनका यह तर्क भी बेहद तकनीकी और दमदार था कि सरकार की ओर से निर्धारित इंजैक्शन की सक्सैस रेट कम है और देर से असर करता है, जबकि वे जो इंजैक्शन लिखते हैं, वही कारगर है। अर्थात वे यह कहना चाहते हैं कि एक विशेषज्ञ ही यह बेहतर निर्णय कर सकता है कि मरीज की जान बचाने के लिए तुरत-फुरत में कौन सा इंजैक्शन लगाया जाना चाहिए। वर्तमान प्रकरण में भी इस प्रकार का तर्क दिया जा सकता है कि जो दवाई बाजार से लाने को कही गई, वही कारगर है, सरकारी दवाई नहीं। अब इसका निर्धारण तो वरिष्ठ चिकित्सक ही कर सकते हैं। उसमें भी मतभिन्नता हो सकती है।
कुल मिला कर अब यह देखना होगा कि डॉ. मीणा क्या स्पष्टीकरण देते हैं और उनके खिलाफ क्या कार्यवाही होती है? होती भी है या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

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