डॉ. कौशिक के यहां एक बैंक कर्मी भी अपने सात आठ साल के बेटे को लेकर आए थे। हाथ में सीता गीता पटाखा फूटने से वो जख्मी हो गया था। बैंक कर्मी ने एक कहानी सुनाई संदर्भ था मां बाप और बुजुर्गों को हम भूलते जा रहे हैं। उन्हें हम गलत मानने लगे हैं। वक्त की रफ्तार में पीछे छूट गया मान रहे हैं। बैंक कर्मी ने एक कहानी सुनाई-एक व्यक्ति अपने सीमित संसाधनों में बेटे का लालन पालन कर रहा था। उसे पढ़ाया लिखाया। बेटा जब तक छोटा था तब तक वो अपने पापा को सुपरमेन मानता रहा। जैसे जैसे बड़ा हुआ वो बहुत सी चीजें समझने लगा। नए जमाने का था इसलिए पापा की बहुत सी मजबूरियों को हजम नहीं कर पा रहा था। पापा से जब भी वो कोई चीज मांगता वे कहते-अभी नहीं दिलवा सकता बेटा। खैर बेटा बड़ा हुआ। नौकरी लगी। पापा दस हजार रुपया महीना लाते थे। बेटा 80 हजार रुपए महीना। एक दिन पापा से किसी बात को लेकर कहा सुनी हुई। बेटे ने बोल दिया-आपने क्या किया जिंदगी में। दस हजार रुपल्ली लाते थे। मुझे देखो-80 हजार रुपया महीना लाता हूं। पापा कुछ नहीं बोले। दिल दर्द चेहरे पर छलकने नहीं दिया।
समय बीता। बेटे की शादी हुई। पत्नी आई। उसके भी बेटा हुआ। उसने भ्ज्ञी लालन पालन किया। उसका बेटा भी उसे सुपरमेन ही मानता था। जैसे जैसे बड़ा हुआ उसके भी बहुत से भ्रम दूर हुए। वो भी अनेक चीजें मांगने लगा। बाप बन चुका बेटा उसे समझाने लगा-बेटा अभी नहीं दिलवा सकते। खैर बेटे का बेटा भी बड़ा हआ। नौकरी लगी। पांच लाख रुपया महीना लाने लगा। शादी हुई। एक दिन विवाद हुआ। बेटे ने वही शब्द दोहरा दिए जो एक दिन उसने अपने पापा को कहे थे-आपने किया क्या जीवन में। 80 हजार रुपल्ली लाते हो। देखो में दो लाख रुपए लाता हूं।
उस दिन अहसास हुआ। पापा सही थे। वे हमेशा से ही सही थे। मगर अब वो अपने पापा से माफी मांगने के लायक भी नहीं रहा। पापा अब इस दुनिया में जो नहीं थे।
