पार्षदों की धरना राजनीति

Ayush Laddha
पिछले एक सप्ताह से सरवाड़ में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के पार्षद अपने ही दल के पालिकाध्यक्ष के खिलाफ धरने पर बैठे हैं। नगर पालिका अध्यक्ष पर जन विरोधी नीतियों और भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर पार्षद उन्हें हटाए जाने की माँग कर रहे हैं। हालांकि यह बात अलग है कि इस कथित “जन विरोधी” आरोप में जनता भी पार्षदों के साथ नही अपितु अध्यक्ष जी के साथ ही खड़ी है, यही वजह है कि उनके “धरना स्थल” पर रोज सिर्फ चार पत्रकार ही जाते हैं। पार्टी भी पार्षदों के “धरना स्टंट” में कोई दिलचस्पी लेती दिखाई नही दे रही है, बीते सात दिनों में किसी बड़े नेता ने पार्षदों से संपर्क साधने की कोई कोशिश नही की।
दरअसल मसला यह है कि तीन वर्ष पूर्व जब भाजपा का बोर्ड यहां गठित हुआ था, तभी पालिकाध्यक्ष पद के लिए जबरदस्त घमासान हुआ था। सादा जीवन उच्च विचार की अवधारणा पर चलने वाले विजय कुमार जी लड्ढा को संघ और आला कमान ने पालिका की बागडोर सौंपी, उनकी बेदाग छवि और बेमिसाल कार्यशैली के चलते उन्हें अजय जी पारीक के ऊपर तरजीह दी गई, जिन्हें की क्षेत्रीय विधायक साहब का आशीर्वाद प्राप्त था। जोशीले अंदाज़ और बेबाक व्यक्तित्व ने अजय जी पारीक को भी उपाध्यक्ष का पद दिलवाया।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ अकसर संगठन में फूट डाल ही दिया करती है, और यही हुआ, बीते तीन सालों में अध्यक्ष और पार्षदों की तनातनी जमकर जनता के सामने आई, सोशल मीडिया पर भी दोनो के समर्थकों में खुल्लमखुल्ला तू तू मै मै होती आई है। जनता की अगर मानें तो विजय कुमार जी “न खाऊँगा और न खाने दूंगा” में विश्वास रखते हैं और शायद यही पार्षदों और उनके बीच तनाव की वजह है। राजनीति के जानकार और कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि ऐसा नगर पालिका अध्य्क्ष पहली बार देखा है, जो किसी भी प्रकार की अनर्गल बयानबाजी में लिप्त नही रहता है। कुछ लोग दीपावली के पर्व का उदाहरण देते हैं, जहाँ पूर्व अध्यक्ष बड़े बड़े टैंट लगाकर, डीजे बजाकर शान से दिखावा करते थे, वहीं श्री लड्ढा अब भी अपनी छोटी सी दुकान पर पहले की ही भाँति लोगों का स्वागत करते हैं, उनकी सादगी राजनीति में एक मिसाल है।
तीन साल तक पार्षद उनके खिलाफ तो रहे पर कभी सीधे तौर पर कुछ शिकायत कर नही पाए, और हाल ही में जब पेच की भूमि का मामला आया जिससे पालिकाध्यक्ष के बड़े भाई का संबंध है, पार्षदों को राजनीतिक रोटियां सेकने का समय मिल गया। मामला माननीय न्यायालय में है पर क्योंकि चुनाव नजदीक हैं तो न्यायलय के फैसले से कोई फर्क नही पड़ता, पार्षद अपना फैसला कर चुके हैं और धरना प्रदर्शन की राजनीति जोरों पर है।
बहरहाल, धरने पर जनता और पार्टी की उदासीनता इसे महज़ एक अखबारी खबर बना दे रही है, और हो न हो अब तो अखबारों ने भी इस खबर को सीरियसली लेना शायद छोड़ दिया है, यही वजह है कि दिन प्रतिदिन इस खबर को अखबार में मिलने वाला “वर्ग सेमी क्षेत्र” कम होता जा रहा है। पार्षदों और अध्यक्ष की लड़ाई कब थमेगी यह तो पता नहीं, पर आने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी पार्टी के लिए गले की हड्डी जरूर बन गई है, जो न उगलते बन रही है, न निगलते।

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