धूप-लोभान सी रूहानी, अजमेर की प्रेम कहानी

शिव शर्मा
अजमेर की सुरम्य उपत्यका (हेप्पी वेली) में उस दिन पर्वत फूल बरसा रहे थे। झरने शहनाई वादन कर रहे थे। हवा मंगल गीत गी रही थी। उस दिन वहां मोणा राजपूत ओर अफगान तलवार बाज मंसूर खान का मिलाप हुआ था। घाटी ने दोनो को आदाब कहा। हवा ने फूलों की सुगंध को पानी में मिला कर उनका अभिषेक किया।
अजयमेरू दुर्ग पर 1024 ई. में महमूद गजनवी ने नाकाम आक्रमण किया था। वह सोमनाथ की तरफ चला गया लेकिन उस का एक सेनापति मंसूर खान यहीं रह गया। उस ने चैहान राजा गोविंदराज से मैत्री कर ली। वह फूलों वाली घाटी (वर्तमान हेप्पी वेली) में रहने लगा। वह राजपूत युवकों को तलवारबाजी सिखाता था।
किले के एक सिपाही वीरसिंह की बेटी मोणा भी प्रतिदिन प्रातः काल वहां गायत्री मंत्र का जाप करती थी। मंसूर वहां कलमा पढता और कुरआन की आयतों का पाठ करता था। एक दिन दोनो मिल गये – मंगला आरती और अजान (सुबह की नमाज) की तरह , अगरू चंदन ओर लोभान की तरह, वेद की ऋचा एवं कुरान की आयत की तरह। यह मिलन दो रूहों के रूहानी निकाह जैसा था।
किसी दिन मोणा ने मंसूर पर झरने का पानी उछालते हुए कहा – मैने तुम्हारा अभिषेक कर दिया। मुस्कराते हुए मंसूर ने उस पर फूल बरसाये औ र कहा – हमने अपने आप तुम्हें पेश कर दिया। उस दिन मोणा ने मंसूर को गायत्री मंत्र याद कराया। उस दिन मंसूर ने भी मोणा को कलमा (इस्लाम का पवित्र वाक्य) पढाया। उस दिन घाटी में इबादत और भक्ति का ‘गठजोड़ा’ हुआ था।
घाटी में तलवार बाजी के अभ्यास के दौरान एक बार मंसूर ने मोणा को एक हाथ से हवा में उछाल दियाओर अपनी तलवार उसकी छाती की तरफ उठा दी। कुछ सेनिक यह देख रहे थे। मोणा ने पल भर में ही अपनी तलवार की नोक को जमीन में गड़ाते हुए दोनो पाँव का प्रहार मंसूर के सीने पर किया। मंसूर गिर गया। तत्काल मोणा ने अपनी तलवार उस के सीने पर टिका दी। राजपूत सेनिक चिल्लाए, वाह मोणा ! शाबाष मोणा।
एक दिन मोणा बोली – मे जिस्मानी नहीं, रूहानी हूं ; यह याद रखना। मंसूर ने भी कहा – म ेअब सेनापति नहीं, फकीर हूं। फकीरी भी जिस्मानी नहीं रूहानी ही होती है। तब दोनो ने एक दूसरे को प्रणाम किया। अब घाटी में वेद -कुरान सहचर हो गए। वहां रूहानी दरगाह और रूहानी मंदिर बन गए। वहां कीर्तन एवं नमाज का एकत्व हो गया। बात धीरे धीरे किले में पहुंची। बात राजा वाक्पतिराज (गोविंदराज की मृत्यु के बाद ) ने सुनीं उस ने कहा – मंसूर को कत्ल कर दो।
उस रात वीरसिंह ने कहा कि मंसूर ! तुम वापस सुल्तान के पास चले जाओं तुम केवल सूर्योदय तक ही सुपक्षित हो। दोनो ने थेड़ आराम कियां घोड़े का इंतजाम हो गया। तीर-तरकश -तलवार की व्यवस्था हो गई। दोनो सूर्योदय से पहले ही निकल पड़ें किंतु जाने कैसे बात फूट गईं किलक का सेनापति सिंहराज इन दोनो की जोड़ी का दुश्मन था। उस ने एक सैन्य टुकड़ी सहित पीछा किया। वर्तमान बजरंग गढ के क्रिश्चियन गंज वाले दतार पर सेना ने उन्हें घेर लिया। तब दरवेशी और द्वेष में, ईष्र्य और इबादत में, उत्कर्ष एवं अत्याचार में युद्ध हुआ। क्रिश्चियनगंज वाली पहाड़ी की साँस रुकने लगी। पहाड़ी के पत्थर भी सिंहराज को धिक्कारने लगे। अंततः दोनो एक साथ घोड़े से नीचे गिरे।
सिंहराज व उसके सेनिक लौट गए। कुछ अन्य योद्धाओं ने मंसूर-मोणा को सलाम किया। उन्हें वहीं पहाड़ी पर दफना दिया। उनकी मजार आज तक वहां मौजूद है। यह शहर इस रूहानी प्रेम की सच्चाई से भले ही बेखबर है लेकिन इतिहास इन दोनो को सलाम करता है।

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