हरदिल अजीज दिलीप महर्षि खुद मुस्कुराते हुए अपनों को बिलखता छोड़ ब्रह्मांड में विलीन हो गए…

अजमेर के मोदियाना गली से जी-ब्लॉक कॉलोनी में बसे परोपकारी श्री दिलीप महर्षि “पप्पू” हँसते बोलते अचानक ब्रह्मलीन हो गए। अविस्मरणीय, अविश्वसनीय घटना से मन स्तब्ध है। अभी का ही प्रसंग है- पहले जयपुर फिर किशनगढ़ के एक समारोह में हँसी मज़ाक के साथ सारगर्भित वार्तालाप हुई। हालांकि मै जब भी मिलता यह सामान्य बात होती थी। आयु में हम लगभग समान, बावजूद इसके “भाईसाहब” के अतिरिक्त दूसरा संबोधन नहीं होता। गजब का सम्मान और आत्मीय भाव। युवावस्था से चले आ रहे रिश्ते में पारिवारिक बातों का भी लम्बा सिलसिला रहता। कभी कभी तो समय का भी ख्याल नहीं रहता। बातों का सिलसिला इस तरह जैसे एक सांस से दूसरी सांस निकल रही है। अपनापन जताने वाले रह ही कितने गए हैं ? यह पीड़ा और बिछोह इतना जल्दी सहना पडेगा, अकल्पनीय।
       कहावत है : व्यक्ति ‘भाग्य’ लेकर आता है और ‘कर्म’ लेकर जाता है। जन्म होते ‘नाम’ नहीं होता, मृत्यु होते उसका कोई न कोई ‘नाम’ होता है। ‘महर्षि जी’ के लिए उक्त दोनों ही युक्ति सटीक थी। इन्होंने अपने परिवार और पिता श्री राजगोपाल महर्षि जी के नाम को साकार ही किया। जीवन में अच्छे ‘कर्मों’ के साथ इनकी विदाई हुई है। मुझ जैसे अनेको लोग हैं जो यकीन ही नहीं कर पा रहे हैं कि “महर्षि जी” हम से कहीं दूर चले गये! अपने नाम के अनुरूप ही इन्होने जीवन जीया। सही में ये अपने परिवार, समाज, रिश्तेदारों, दोस्तो में ‘रत्न’ समान दमकते रहे। कहीं कोई कैसा भी कामकाज हो सदैव तत्पर रहते।
       बात उस जमाने की है जब रेल टिकट की मारामारी रहती थी तब मुझ जैसे लोग तो वीआईपी कोटे से जैसे तैसे करा लेते लेकिन आम रिश्तेदारों के लिए तो “महर्षि जी” रामबाण सिद्ध होते। अपना कार्य छोड़ ये कितना ही समय लगा देते यह मैने देखा है।
युवावस्था में हमारे एक परम मित्र डॉ. एलएन शर्मा को उनके एक जानकार से कोई काम था। मैने कहा उनको यहीं बुला लेते है। वे बोले मुझे काम है मैं खुद जाऊंगा। मेरे इस साथी में भी मैने यही गुण देखे, जिसका मैं कायल रहा। साफ दिल, स्पष्ट वक्ता, ईमानदार छवि के दिलीप जी ने अपने सरकारी (आयुर्वेद विभाग) अमले में, सामाजिक क्षेत्र सहित जिसके भी संपर्क में आए अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी, वे सब आज ग़मगीन है, उदास है।
       पीछे भरापूरा प्रतिष्ठित परिवार है। जीवनसंगिनी के रूप में डॉ. रशिका जिन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, हालाँकि उनके कर्तव्य का हिस्सा भर है, उन पर नाज है। रशिका जी ने कुल को दो हीरे दिए, व्यापक सामाजिक रिश्ते बनाएं। कोई कमी हुई तो अनूठे व्यक्तित्व के न होने की, जो कि कभी पूरी नहीं हो सकेगी। कटु सत्य है सब को कभी न कभी जाना ही है। हमारी यादों में महर्षि जी सदैव अमिट रहेंगे, मेरे ही नहीं, सभी के।
     परमपिता परमेश्वर से विनम्र प्रार्थना है कि दिवंगत पुण्य आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान देकर अपन सब को कृतार्थ करें। परिवारजनों को सम्बल दे…
सादर विनम्र भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ…
*पत्रकार गजेन्द्र बोहरा*

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