सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दीवान हजरत जैनुल आबेदीन अली खान ने जैसे ही अजमेर को राष्ट्रीय स्तर पर जैन तीर्थ स्थल घोषित करने की मांग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से की है, एक नई बहस छिड गई है। उसके अनेक पहलु हैं। जहां तक निरपेक्ष रूप से मांग का सवाल है तो लोकतंत्र में अपनी राय जाहिर करने अथवा मांग रखने का सभी को अधिकार है। दूसरा यह मांग सकारात्मक है, नकारात्मक नहीं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि किसी समय में अजमेर में जैन संस्कृति का बोलबाला था। उसके बाकायदा प्रमाण मौजूद हैं। बेशक दीवान साहब की मांग को सद्भाव बढाने की दिशा में एक बडा कदम कहा जा सकता है। अगर जैन समाज मांग करे तो उसमें कुछ भी अनूठा नहीं होता, लेकिन ख्वाजा साहब के वंशज ऐसा प्रस्ताव रखें तो वह चौंकाता तो है। अब लोग कयास लगा रहे हैं कि या तो दीवान साहब ने जैन समाज के प्रतिनिधियों के सामने सद्भाव स्वरूप ऐसा कह दिया होगा, या फिर बहुत सोच समझ कर ऐसा किया। उनकी इस मांग के गहरे निहितार्थ होने ही चाहिएं। वो इसलिए कि वे बहुत महत्वपूर्ण पद पर बैठे हैं। जो लोग उन्हें नजदीक से जानते हैं, उनको पता है कि वे कितने तीक्ष्ण बुद्धि हैं और विवेकपूर्ण व तर्कसंगत बात करते हैं। एक अर्थ में कानून की किताब ही हैं। उन्हें यह निश्चित की ख्याल में होगा कि वे जिस पद पर बैठ कर ऐसी बात कर रहे हैं, उसे किस अर्थ में लिया जाएगा? उसकी प्रतिध्वनि क्या हो सकती है? उनके दिमाग में चल रही कुकिंग का फिलवक्त अनुमान लगाना मुश्किल है। हो सकता है, अजमेर में सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम रखने के लिए सर्वे भवंतु सुखिनः के भाव से उनकी कोई दूरदृष्टि हो। हो सकता है कि वे मौजूदा गरमाहट को डाइल्यूट करना चाहते हों। दिलचस्प बात ये रही कि हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने इस बॉल को तुरंत लपक लिया। विष्णु गुप्ता ने अपने बयान में दरगाह दीवान की मांग का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि दरगाह दीवान कम से कम यह मानने को तैयार हो गए कि यह जैनियों का तीर्थ स्थल है। हमने भी दावे में शिव मंदिर होने के साथ जैन मंदिर होने का दावा किया था। इस घोषणा से हमारे केस को मजबूती मिलेगी। एक दिन यह भी सामने आएगा कि दरगाह में भगवान शिव का संकट मोचन मंदिर तोड़कर दरगाह बनाई गई है। अगर अजमेर जैन तीर्थ स्थल घोषित होता है तो मैं चाहता हूं कि सभी हिंदू उसका स्वागत करें। यानि उन्हें इस बात से संतुष्टि है कि गाडी पटरी पर आधी तो आ गई। जाहिर है उनके दिमाग में होगा कि भले ही जैन अलग धर्म है, मगर जैनी सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदुओं के करीब हैं, लिहाजा अजमेर को जैन तीर्थ क्षेत्र घोषित करने पर हिंदुओं को कोई बडा ऐतराज नहीं होगा, क्योंकि सनातनी बहुत सहिष्णु हैं। अब तक सभी को आत्मसात करते आए हैं। फिलवक्त खुद्दाम हजरात, मुस्लिम जमात, सनातन धर्मियों आदि की ओर से कोई मजबूत प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। हो सकता है कि उनको लगता हो कि मांग पूरी होने की उम्मीद है नहीं, लिहाजा उसे तूल दिया ही क्यों जाए? कदाचित किंकर्तव्यविमूढता हो या मौन स्वीकृति।
इस प्रकरण को पिछले दिनों जैन संत सुनील सागर जी महाराज के ससंघ तीस साधु संतों के साथ ढाई दिन के झोंपडे का विहार करने से जोड कर देखा जा सकता है। उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। एक चबूतरे पर बैठ कर आचार्य सुनील सागर ने कहा कि जिसकी विरासत है, उसे मिलनी चाहिए, लेकिन इसमें कोई विवाद या झगड़ा फसाद न हो। उन्होंने कहा कि यहां संस्कृत पाठशाला व मंदिर के साथ जैन मंदिर भी रहा होगा। मैने नसियांजी में कुछ मूर्तियां देखी तो बताया गया कि वे अढाई दिन का झौंपडा में खुदाई के दौरान मिली थीं। उनके इस बयान का यह अर्थ निकाला गया कि उनके मार्गदर्शन में ढाई दिन के झोपड़े को लेकर कोई व्यूह रचना की जाएगी। दीवान साहब का बयान उनकी मंशा के अनुकूल भी है।
बहरहाल, इस मामले में एक सोच यह भी है कि अजमेर तो दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर की वजह से पहले से तीर्थ स्थल है। यहां हिंदू श्रद्धा के साथ व मुस्लिम अकीदत के साथ आते हैं। यानि वे पर्यटक नहीं, बल्कि तीर्थयात्री हैं। अजमेर को विभिन्न संस्कृतियों का संगम बताते हुए अब तो पुष्कर व दरगाह के साथ नारेली तीर्थ, साईं बाबा मंदिर, गिरिजाघर व गुरूद्वारे का नाम भी लिया जाता है। अर्थात यह सभी धर्मों का संयुक्त तीर्थस्थल है। तो इसे अलग से जैन तीर्थ स्थल घोषित करने की जरूरत क्या है?
वैसे एक बात पक्की है कि अजमेर का फैब्रिक मौलिक रूप से ऐसा है कि तमाम आशकाओं के बावजूद यहां का सांप्रदायिक सौहार्द्र का तानाबाना सदैव कायम रहने वाला है।
-तेजवाणी गिरधर
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