कांग्रेस से क्यों विमुख होते जा रहे हैं सिंधी नेता?

यह आम धारणा है कि अजमेर में अधिसंख्य सिंधी मतदाता भाजपा मानसिकता के हैं, लेकिन एक जमाने में भूतपूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के प्रभाव से काफी संख्या में सिंधी कांग्रेस से जुडे हुए थे। उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने हालांकि स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय को टिकट दिया और वे जीते भी, मगर उसके बाद हुए चुनाव में टिकट काट दिया गया, नतीजतन वे बागी हो गए। परिणामस्वरूप श्री नरेन शहाणी भगत मात्र ढाई हजार वोटों से हार गए। भाजपा के श्री वासुदेव देवनानी का अजमेर में पदार्पण हुआ और उसके बाद लगातार चार बार जीते। वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष हैं। हालांकि बाद में भगत को नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनाया गया था, मगर कांग्रेस राज में कथित षडयंत्र के चलते वे भ्रष्टाचार के मामले में फंस गए। उन्होंने बाकायदा साजिश का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड दी। बस इसी के साथ सिंधी समुदाय में कांग्रेस विचारधारा के नेता व कार्यकर्ता हतोत्साहित होते गए। बावजूद इसके कुछ नेताओं ने हिम्मत नहीं हारी। श्री नरेश राधानी ने टिकट हासिल करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया, मगर उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई। उस जमाने के सारे दावेदारों में वे इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्हें टिकट हासिल करने की पतली गलियों का अच्छी तरह से पता था और उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। मगर कांग्रेस को चूंकि सिंधी को टिकट देना ही नहीं था, इस कारण उनकी कवायद किनारे तक पहुंचने के बाद भी कामयाब नहीं हो पाई। वे समझ गए और पूर्णकालिक पत्रकारिता आरंभ कर दी। फिर आए दीपक हासानी। प्रोजेक्शन तो था कि टिकट उनकी फायनल है, मगर उनके साथ भी अंततः धोखा हो गया। हालांकि उन्होंने दूसरी बार भी कोशिश की, मगर सफलता हासिल नहीं हो पाई। पिछले कुछ दिन से निष्क्रिय से हैं। पिछले पांच बार से टिकट के सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे राजस्थान सिंधी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ लाल थदानी ने पिछले चुनाव में तो ढंग से दावेदारी ही नहीं की। उनकी गिनती सिंधी समाज में सर्वाधिक सक्रिय नेताओं में होती रही है। आज कल हिंदूवादी मानसिकता के कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं। यानि कि कांग्रेस से लगभग किनारा कर लिया है। वस्तुतः कांग्रेस राज में उन्हें सस्पेंशन का दर्द भोगना पडा। अब बात करते हैं, स्वामी अनादि सरस्वती की। बडे हाई प्रोफाइल तरीके से कांग्रेस में लाया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उनको कांग्रेस ज्वाइन करवाई। उनको टिकट मिलने का तनिक विरोध होते ही उन्हें साइड में बैठा दिया गया। बाद में खैर खबर ही नहीं ली। उनका कोई उपयोग नहीं किया गया। अब वे हिंदूवादी संगठनों के कार्यक्रमों में भाग ले रही हैं। कुल जमा ऐसा समझ में आता है कि कांग्रेस की नीति व रवैये के कारण सिंधी नेता विमुख होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं भूतपूर्व केबिनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के जमाने के कई कांग्रेस समर्थकों की औलादें नेतृत्व के अभाव में भाजपा में जा चुकी हैं। अब यह तथ्य सुस्थापित हो चुका है कि सिंधियों की नाराजगी के कारण कांग्रेस अजमेर की दोनों सीटों पर पिछले चार चुनावों से लगातार हार रही है। सुना है अब सिंधी मतदाताओं को लुभाने के लिए तीन विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। एक शहर कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए। दूसरा अगर मेयर के चुनाव डायरेक्ट हों तो किसी सिंधी को प्रत्याशी बना दिया जाए। तीसरा परिसीमन के बाद संभावित तीसरी सीट का टिकट सिंधी को दिया जाए।

Leave a Comment

This site is protected by reCAPTCHA and the Google Privacy Policy and Terms of Service apply.

error: Content is protected !!