शांति भूषण और अडवाणी की जोड़ी पुरानी है जो ‘आप’ तक कायम है

aam aadmi parti thumb-प्रेम सिंह- नवउदारवादी व्यवस्था आगे बढ़ेगी तो सांप्रदायिकता भी आगे बढ़ेगी, उपनिवेशवादी दौर से यह सबक मिला हमें मिला है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अपनी समीक्षा (‘भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ’ शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य) में हमने यह विशेष जोर देकर और बार-बार कहा है कि नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय-विरोध के घोल से तैयार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सबसे पहले और सबसे ज्यादा आरएसएस को फला है। इस परिघटना पर पर्दा डालने की कोशिश केवल खांटी नवउदारवादी और मुख्यधारा मीडिया ही नहीं कर रहे हैं, खुद सेकुलर खेमे के बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं। वे प्रचारित करने में लगे हैं कि इस आंदोलन के प्रणेता केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ने से रोक दिया है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के इस प्रचार पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
मान लिया जाए कि जीतने वाला ही सिंकदर होता है और उसका गुणगान जैसे राजतंत्र में होता था, उसी तरह लोकतंत्र में भी किया जाना जरूरी है। चुनाव जीतना ही कसौटी है तो फिर भाजपा, जिसने तीन राज्यों में भ्रष्ट कांग्रेस को परास्त करके सरकार बनाई है और दिल्ली में सबसे ज्यादा सीटें लेकर पहले नंबर की पार्टी है, का स्वागत भी होना चाहिए। उसे भी दिल्ली की जनता ने ही यह मेंडेट दिया है। भाजपा के सांप्रदायिक होने का तर्क नहीं चलेगा। सांप्रदायिक होने के बावजूद वह उस पूरे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल थी, जिसने नागरिक समाज, खास कर धर्मनिरपेक्षतावादियों को नया ‘देवता’ प्रदान किया है। केजरीवाल ने आज तक नरेंद्र मोदी, उनके द्वारा गुजरात में तैयार की गई हिंदुत्व की प्रयोगशाला, फरवरी 2002 में मुसलमानों का राज्य-प्रायोजित नरसंहार, उसे छिपाने के लिए किए गए षड़यंत्रों और बहुप्रचारित विकास के गुजरात मॉडल पर कभी कुछ नहीं बोला है। अपने मुंह से यह भी नहीं कहा है कि वह मोदी को रोकने निकले हैं।
कल तक सोनिया के सेकुलर सिपाही बने लोग यह सब कह रहे हैं। गुजरात का तीसरा विधासभा चुनाव मोदी ने आसानी से जीत लिया। नरसंहार के समय से ही बहुत-से लोग और संगठन वहां पीड़ितों को न्याय दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। देश बचाने का दिन-रात ढोल पीटने वाले केजरीवाल और उनके कारिंदे वहां एक शब्द नहीं बोले। उनके गुरु अण्णा हजारे और उनकी खुद की बाबरी मस्जिद ध्वंस के संविधान और सभ्यता विरोधी कृत्य पर कोई टिप्पणी कम से कम हमें नहीं मिलती। जगजाहिर है कि दिल्ली में झुग्गी-झोंपड़ी वालों को छोड़ कर भाजपा और ‘आप’ का साझा वोट बैंक था। उन्होंने साफ कहा है कि केजरीवाल के ऊपर वे मोदी को वोट देंगे। तो केजरीवाल उनके ‘छोटे मोदी’ हैं। जिन प्रशांत भूषण पर धर्मनिरपेक्षतावादी दम भरते हैं, उन्होंने सबसे पहले कहा कि ‘आप’ को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से नहीं, भाजपा से मुद्दा आधारित समर्थन लेना चाहिए। मोदी का वीटो नहीं होता तो ‘आप’ के विधायक खुद ही भाजपा की सरकार बनवा देते। केजरीवाल को ‘छोटे गांधी’ का खिताब अता करने वाली किरण बेदी ने कहा है कि ‘आप’ और भाजपा की विचारधारा एक है। शांति भूषण और अडवाणी की जोड़ी पुरानी है जो ‘आप’ तक कायम है।
जैसे आधुनिकता और विज्ञान का साम्राज्यवादी पहलू होता है, वैसे ही साम्राज्यवादी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी काम करता है। हिंदुत्ववादियों के साथ मोदी को केवल अंधविश्वासी, प्रतिक्रियावादी और राजनीतिक अवसरवादी तत्व ही बढ़ावा नहीं दे रहे हैं, आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का दावा करने वाले भी दे रहे हैं। थोड़ा गहराई से देखें तो केजरीवाल को मोदी की काट बताने वाले ये लोग मोदी को ही बढ़ावा दे रहे हैं। मजेदारी यह है कि मोदी के मामले में इनकी आपस में लाइन तय नहीं हुई है। बात-बात में गांधी का नाम लेने वाले एक ‘आप’ समर्थक साथी को देश की विदेशों तक फैली युवा शक्ति की तरह ‘आप’ और केजरीवाल की मजबूती में नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ होता नजर आता है। ‘आप’ के चुनाव प्रचार में शामिल होने वाले ये साथी खुल कर कहते हैं कि मोदी जैसा दमदार नेता और कोई नहीं है। मजबूरी की धर्मनिरपेक्षता के बोझ तले दबी उनकी विकास के गुजरात मॉडल की प्रशंसा अवसर पाकर फूट निकली है।
दूसरी ओर मार्क्सवादियों, समाजवादियों और नवउदारवादियों की लाइन है जो केजरीवाल को मोदी को रोकने वाला ‘अवतार’ बता रहे हैं। दरअसल, सांप्रदायिकता का साइड बिजनेस करके कोई दूसरा शख्स सोनिया/ कांग्रेस की जगह लेता है तो उसका सेकुलर सिपाही बनना होगा। वरना देश के संसाधनों की बिकवाली से नागरिक समाज का जो चोखा धंधा चल रहा है, उसे अकेले संघी हड़प जाएंगे। आजकल बड़े शहरों के अधिकांश वाम, लोकतांत्रिक और सेकुलर बुद्धिजीवियों के लिए धर्मनिरपेक्षता का यही मायना रह गया है। हमने सोचा था कि कारपोरेट कपट में साथ देने वाले ये लोग कम से कम धर्मनिरपेक्षता जैसे संगीन सवाल पर जनता के साथ धोखा नहीं करेंगे। लेकिन, मुक्तिबोध के काव्यनायक के शब्दों में ‘पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता’!
सवाल है कि मोदी क्या एक नाम भर है? आरएसएस की कट्टर धारा किसी न किसी नेता में मूर्तिमान होती है। मोदी उसके सबसे बड़े प्रतिनिधि बन कर उभरे हैं। लेकिन इस कट्टर धारा के सार पर ध्यान देने की जरूरत है। वह वही है जो अभी लघु रूप में केजरीवाल में है। केजरीवाल के गुरु अण्णा हजारे ने पहली प्रशंसा मोदी की की थी। उनके आंदोलन के सहयोगी रामदेव ने मोदी को अपने आश्रम में बुला कर हिंदुओं का नेता घोषित किया। हमने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर निवेदन किया था कि यह धर्म का राजनीति के लिए सीधे इस्तेमाल का मामला है, लिहाजा, इसकी जांच हो और रामदेव और नरेंद्र मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो। धर्मनिरपेक्षता के इन झंडाबरदारों में से किसी ने साथ नहीं दिया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के एक महत्वपूर्ण सदस्य चेतन भगत आरएसएस के मोदी के पक्ष में किए गए फैसले से काफी पहले से देश-विदेश में उनके प्रचार में जुटे थे। पूरा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आरएसएस के इंतजाम में हुआ। प्रशांत भूषण को उनके चेंबर में घुस कर पीटने वालों और अफजल गुरु का शव मांगने दिल्ली आई कश्मीर घाटी की महिलाओं की मांग के पक्ष में प्रेसवार्ता को नहीं होने देने वालों की देशभक्ति आरएसएस मार्का थी। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जुटे ज्यादातर ‘आदर्शवादी’ युवा मोदी के भक्त हैं। आरएसएस केवल संघ की शाखाओं और कार्यालयों के रजिस्टरों में ही नहीं चलता। वह वर्गस्वार्थ में अंधे नागरिक समाज की रगों में भी चलता है। आपने देखा ही घुर वामपंथियों से लेकर जनांदोलनकारियों तक अण्णा-रामदेव के आंदोलन में कूद पड़े थे।

मजेदारी देखिए इंडिया अगेंस्ट करप्शन की टीम के अण्णा हजारे, किरण बेदी, रामदेव, श्रीश्री रविशंकर, अग्निवेश जैसे ‘तत्वों’ से केजरीवाल को अलग निकाल लिया है। बाकियों की निंदा तथा केजरीवाल की प्रशंसा की जा रही है। हमारा कहना रहा है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन, कांग्रेस-भाजपा समेत ये सब एक ही टीम है। अण्णा हजारे तब बुरा नहीं था, जब उसने जंतर-मंतर से पहली प्रशंसा नरेंद्र मोदी की थी। केजरीवाल से चंदे का हिसाब मांग लिया तो बुरे बन गए। यह निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य के लिए संकट का समय है। जो शख्स मोदी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलता, उसे मोदी की काट बताया जा रहा है। कुछ उत्साही धर्मनिरपेक्षतावादी केजरीवाल से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का आह्वान तक कर रहे हैं।
इस कठिन दौर में मुस्लिम अवाम बड़ी भूमिका निभा सकता है। सांप्रदायिकता का जहर उस पर दोहरी मार करता है। दंगों में तबाही और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप नौजवानों में अतिवादी भटकाव। अंतर्राष्ट्रीय हालातों के चलते उनमें से कुछ आतंकवादी बन जाते हैं। सेकुलर खेमे की पार्टियां उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं। उससे कुछ मुसलमानों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी जरूर मिलती है, लेकिन बाकी समाज का अलगाव बढ़ता जाता है। हाल में हुए मुजफ्फर नगर दंगों के बाद वहां चल रहे राहत शिविर देखे जा सकते हैं। अलगावग्रस्त मुसलमान मुंह देखी बातें करते हैं और कुछ भी खुल कर स्पष्ट नहीं कह पाते। सच्चर समिति की रपट ने यह बताया है कि यह अलगाव शिक्षा, रोजगार और व्यापार में उनकी बहुत कम हिस्सेदारी के चलते है। वे बिना राष्ट्रीय धारा में शामिल किए गए राष्ट्रवादी होने का बोझ ढोते हैं।
शिक्षित और तरक्की पसंद मुसलमानों से भी उनका अलगाव रहता है। उस अलगाव का शिक्षित और तरक्की पसंदों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन अपने दीन और हुनर में जीने वाले मुसलमानों पर पड़ता है। छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक धार्मिक हस्तियों पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है। अपने को टिकाए रहने के लिए उन्हें दीन को कुछ ज्यादा ही पकड़ कर रहना होता है। कई बार कट्टर धारा वाले मुल्ला-मौलवी इसका बेजा फायदा उठाते हैं।
हम यह नहीं कहते कि सच्चर कमेटी की सिफारिशें अंतिम हैं और उन पर बहस नहीं होनी चाहिए। लेकिन उनकी रोशनी में देश की सबसे बड़ी अकलियत को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का काम जल्दी और तेजी से करना हर राजनीतिक पार्टी और सरकार का ध्येय होना चाहिए। जैसे हिंदू कट्टरता के कारण हैं, वैसे ही मुस्लिम कट्टरता के कारण हैं। उन कारणों को दूर करने की जरूरत है, न कि तौकीर रजा खान जैसी शख्सियतों से मुलाकात करके इस धारणा को पुष्ट करने की कि मुसलमानों का वोट लेने के लिए कट्टरता को सहलाना जरूरी है।
हमें एक आधुनिक, तर्क प्रधान, शिक्षित, समतापूर्ण और स्वावलंबी राष्ट्र बनना है, पिछले करीब तीन दशकों में यह लक्ष्य लगभग भुला ही दिया गया है। ऐसे हालात में रोज कुआं खोदा जाता है और रोज पानी पिया जाता है। कम से कम मुसलमानों को यह कवायद बंद कर देनी चाहिए। हर बार धर्मनिरपेक्षता का कोई न कोई दावेदार खड़ा हो जाता है और उसका वोट पक्का मान लेता है। बीजेपी को हराने की जिम्मेदारी अकेले मुसलमानों पर डाल दी गई है। उनका वोट लेकर नेता भले ही भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना लें। हमने कहा है कि एक बार मुसलमान इस प्रवृत्ति के खिलाफ सत्याग्रह स्वरूप अपना वोट रोक लें। संभव हो तो उम्मीदवार भी न बनें।
इसके लिए बहुत काम करने की जरूरत होगी। सारे समाजी, धार्मिक और सियासी इदारे इस दिशा में काम करें। अलग-अलग पार्टियों के मुस्लिम नेता इससे जुड़ें। आधुनिक और प्रगतिशील सोच के साथ राष्ट्रीय स्तर पर यह कार्यक्रम चले। जहां भी संविधान के साथ छेड़छाड़ हुई है अथवा होती है, उसका सत्याग्रही प्रतिकार हो और पार्टियों को संवैधानिक शासन के लिए बाध्य किया जाए। मुसलमान, जैसा कि सच्चर कमेटी की रपट से सबको पता चल गया है, खुद में एक वंचित अवाम है। वह देश की बाकी वंचित अवाम के साथ मिल कर समाजवाद की दिशा में काम करे। लोहिया ने इसका सूत्र दिया है – दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं और गरीब मुसलमान। लेकिन यह चुनावी गणित नहीं होना चाहिए। नवउदारवाद के लिए वही असली चुनौती होगी। नवउदारवादियों को आपस में निपटने दो। तब शायद इस देश का शासक वर्ग गंभीरता से सांप्रदायिकता की समस्या और उसे खत्म करने के उपायों पर गौर करेगा। कड़े कानून बनाने से सांप्रदायिकता नहीं रोकी जा सकती।
एक रास्ता और हो सकता है। नवउदारवाद के साथ सांप्रदायिकता नत्थी है और बढ़ती है। मुसलमान सेकुलर पार्टियों के पास जाना छोड़ दें। उन पार्टियों का साथ दें जो नवउदारवाद का मुकम्मल विरोध करती हैं और सेकुलर हैं। इससे उन पार्टियों को राजनीतिक जमीन मिलेगी जिसके चलते संविधान सम्मत सरकार चलाने का काम आगे बढ़ेगा। भाजपा कई राज्यों में सत्ता में रहती है और 6 साल केंद्र में भी सरकार का नेतृत्व कर चुकी है। सेकुलर के नाम पर मुसलमानों के वोट लेने वाली लगभग सभी पार्टियां भाजपा के साथ राज्यों और केंद्र में रह चुकी हैं। ‘टेक्टिकल वोटिंग’ का फार्मूला पुराना पड़ चुका है। मुसलमानों के समर्थन का इस्तेमाल पार्टियां धर्मनिरपेक्षता कायम करने के लिए नहीं, नवउदारवादी एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए करती हैं। मुसलमान वोटों को लूटने के लिए निकले नए ‘ईमानदारों’ के ‘पुराने बेईमान’ खाते निकाल कर देख लीजिए। ये अमेरिका-इजरायल की धुरी से बंधे हैं और राजनीति में उसी धुरी की मजबूती करेंगे। http://www.hastakshep.com
समाजवादी चिंतक डॉ. प्रेम सिंह सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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