भाजपा के धुर विरोधी कांग्रेस और वाम दल किसी भी सूरत में मोदी को प्रधानमंत्री बनते हुए नहीं देखना चाहते. देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बन रहा है उसमें संभावना जताई जा रही है कि आप तीसरे बड़े दल के रूप में उभर कर आएगा. ऐसे में वाम दल आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे के सरकार बनने की संभावना देख रहा है तो कांग्रेस भी मोदी अश्वमेध रथ को रोकने का एक बेहतर अवसर. ऐसे में कांग्रेस और वाम दलों ने “आप” को लेकर अपनी अपनी रणनीति तैयार कर ली है. अनिल पांडेय की रिपोर्ट….
आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता और उसके उभार को देखते हुए कांग्रेस और वामदलों को लग रहा है कि मोदी का विजय रथ अरविंद केजरीवाल ही रोक सकते हैं. लिहाजा, आम आदमी पार्टी के कंधे पर सवार होकर दोनों पुराने दल राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं. इसके लिए दोनों दलों ने आम आदमी पार्टी को लेकर खास रणनीति बनाई है. कांग्रेस की रणनीति है कि लोकसभा चुनाव तक केजरीवाल को राजनीति के केंद्र में बनाए रखना ताकि आम आदमी पार्टी का ध्यान उससे बंटकर भाजपा पर केंद्रित हो जाए. इससे उसे दो फायदा होगा, एक तो केजरीवाल भाजपा पर हमला करेंगे और फिर मोदी राहुल की बजाए केजरीवाल पर निशाना साधेंगे. इससे लोगों का ध्यान कांग्रेस से हटेगा और पार्टी को नुकसान होने से बचाया जा सकता है. तो केंद्र की राजनीति में हाशिए पर चले गए वामदल अपना वजूद कायम करने के लिए आम आदमी पार्टी के रूप में तीसरे मार्चे की संभावना तलाश रहे हैं. इससे उन्हें अपने धुर विरोधी भाजपा को सत्ता तक पहुंचने से रोकने के साथ साथ पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की भी जड़े कमजोर करने में मदद मिलेगी. अगर आप लोकसभा चुनाव में तीसरा दल बन कर उभरता है तो मोदी को दिल्ली की गद्दी से पहुंचने से रोकने के लिए वामदल और कांग्रेस मिल कर केंद्र में उसकी सरकार बनवा देंगे.
दिल्ली में समर्थन देकर आम आदमी पार्टी की सरकार बनवाने से कांग्रेस के लिए स्थिति बदली है. आम आदमी पार्टी पहले केवल कांग्रेस को निशाने पर लेकर चल रही थी, विश्वास मत हासिल करने के बाद जो तस्वीर उभरी उसमें कांग्रेस के साथ भले उसका व्यवहार दोस्ताना न हो, लेकिन तल्खी और खटास में थोड़ी कमी जरूर आई है. हमले का रूख बदल गया है. निशाने पर भाजपा आ गई है. पिछले एक साल से जिस तरह से कांग्रेस को जनविरोधी बताने की मुहिम छिड़ी थी, वैसी मुहिम की जद में अब भाजपा दिखने लगी है. भाजपा को लेकर आम आदमी पार्टी के नेताओं के तेवर काफी तल्ख हो गए हैं. ऐसा जाहिर हो रहा है जैसे आम आदमी पार्टी को लग रहा है कि उनकी वजह से कांग्रेस का मिजाज ठंडा हो गया है और अब उनका अगला मिशन भाजपा है. जिसे लोकसभा चुनाव में निपटाकर वह नए राजनीतिक मापदंड स्थापित कर देंगे. कहना गलत नहीं होगा कि यदि आम आदमी पार्टी इस सोच में आ गई है, तो यह कांग्रेस की रणनीतिक सफलता मानी जाएगी, क्योंकि वह यही चाहती थी कि लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का ध्यान उससे बंटकर भाजपा पर केंद्रित हो जाए. भाजपा की तरफ ध्यान केंद्रित होने का उसे भले ही बड़ा फायदा न मिले, लेकिन बड़े नुकसान से तो बचा जा सकेगा.
कांग्रेस की समझ में आ गया है कि यदि केजरीवाल की गति को धीमा करते हुए उसके रूख को मोड़ा नहीं गया तो सर्वाधिक नुकसान कांग्रेस का ही होगा, क्योंकि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो मोर्चा अन्ना हजारे की तरफ से खोला गया था, वह कांग्रेस के खिलाफ था. उसके बाद बाबा रामदेव की तरफ से कालाधन का मुद्दा उछालकर उस पर तडक़ा लगाया गया. लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों ने अन्ना को फिलहाल डियूज कर दिया है. महंगाई का आलम नाक से ऊपर पानी जाने जैसा हो गया है. ऐसे में कांग्रेस के खाते में नुकसान के अलावा फायदा कहीं से नहीं दिख रहा था. हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों का आकलन करने पर कांग्रेस ज्यादा घाटे में रही. इन स्थितियों में कांग्रेस बहुत सोच-समझकर चाल चल रही है. अध्यादेश वाले दस्तावेज को फाडऩे के बाद लोकपाल विधेयक को पारित कराने तथा आदर्श मामले की जांच कराने के निर्देश पर अमल सीधेतौर पर कांग्रेस में राहुल गांधी को आगे बढ़ाने की रणनीति का हिस्सा है. राहुल में नेतृत्व क्षमता का भान कराते हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अस्तित्व पर आने वाले खतरे को टालना कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती थी. लिहाजा, आम आदमी पार्टी को दिल्ली में सत्ता देकर कांग्रेस ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं. कांग्रेस की रणनीति यह है कि यदि आप दिल्ली में सफल हुई तो उसके विकासकारी कार्यों का श्रेय कांग्रेस को भी मिलेगा, क्योंकि उसी के समर्थन से आप की सरकार बनी है. और यदि विफल हुई तो भविष्य में बनने वाली बड़ी चुनौती का अंत हो जाएगा. देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बना हुआ है, ऐसे में भाजपा को रोक पाना उसके अकेले के बूते में नहीं है. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सत्ता देरकर कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है. लिहाजा, अब 2014 में मोदी और राहुल के मुकाबले के बीच में केजरीवाल भी आ गए हैं. जाहिर है अगर ऐसा हुआ तो नुकसान भाजपा को ही होगा.”
पहले लोकसभा चुनाव में और फिर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में करारी हार से वामदल केंद्र की राजनीति में हाशिए पर चले गए हैं. जब भी केंद्र में तीसरे मार्चे की सरकार बनी तो वामदलों की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही. कभी लोकसभा में वह तीसरा सबसे बड़ा दल हुआ करता था और सीपीआई और सीपीएम के मिलाकर 53 सांसद हुआ करते थे जबकि मौजूदा समय में यह घटकर 20 रह गए. बदले राजनीतिक हालात में जिस तरह से आम आदमी पार्टी का राष्ट्रव्यापी उभार हो रहा, उससे वामदल फिर से तीसरे मार्चे की संभावना तलाशने लगे हैं. उधर, आम आदमी पार्टी के नेताओं को भी लगने लगा है कि वामपंथी नेताओं का साथ मिलने से पश्चिम बंगाल में ‘आप’ का जनाधार बढ़ाने में उसे काफी मदद मिलेगी.
वामदलों और आम आदमी पार्टी के बीच राजनीतिक खिचड़ी पक रही है. दरअसल, इसमें दोनों दलों के अपने-अपने हित सध रहे हैं. दिल्ली की कुर्सी मिलने के बाद ‘आप’ का मन केंद्रीय सत्ता में आने के लिए मचल रहा है. वहीं इस रणनीति के माध्यम से वामपंथी धड़ा तृणमूल कांग्रेस की राह में स्पीड ब्रेकर बनकर पश्चिम बंगाल में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करना चाहता है. कम्युनिस्टों के साथ सटना ‘आप’ को इसलिए सुहा रहा है क्योंकि केंद्रीय स्तर पर लॉबिंग के लिए एक अहम मध्यस्त की उन्हें भी जरूरत है. वाम दलों की निगाहों आम आदमी पार्टी पर टिकी हुई हैं. सबसे बड़े वामपंथी दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात कहते हैं, “दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाने वाली ‘आप’ पर अभी कोई राय बनाना बहुत जल्दबाजी है. लेकिन यह अच्छी बात है कि ‘आप’ को मध्य वर्ग से अच्छा सहयोग मिला है. हम उनसे उनके कार्यक्रमों और नीतियों का इंतजार कर रहे हैं.” प्रकाश करात ने अपने इस बयान से यह जाहिर कर दिया है कि उन्हें ‘आप’ का इंतजार है.
वामपंथी खेमे में बाहर से जितना सन्नाटा दिखाई दे रहा है, अंदर उतनी ही हलचल चल रही है. कांग्रेस के पराभव को देखते हुए वामपंथी दलों को जिस तरह की राजनीतिक सीढ़ी की तलाश थी, वह ‘आप’ के रूप में पूरी हो गई है. आप को आगे कर वामपंथी दल राजनीतिक तिराहा बनाने की जुगत भिड़ा रहे हैं. इससे उनके दो मकसद हल हो रहे हैं. पहला भाजपा को केंद्रीय सत्ता में आने से रोकने का और दूसरा तृणमूल कांग्रेस को घेरना का. वामपंथी दल जानते हैं कि केंद्रीय मदद के बगैर पश्चिम बंगाल सरकार ज्यादा दिन तक मजबूती से खड़ी नहीं रह पाएगी, क्योंकि उसकी आर्थिक हालात काफी नाजुक है. 32 साल के शासन के कारण उन्हें राज्यकोषीय नब्ज पता है. उन्हें ये भी मालूम है कि ममता बनर्जी को यदि पटखनी देनी है तो उसे राज्य की बजाए केंद्रीय स्तर पर झटका देना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि राज्य में इस समय वामपंथी दलों के खिलाफ उसी तरह का माहौल है, जैसे देशभर में कांग्रेस के विरूद्ध. बड़े रणनीतिक तरीके से कम्युस्टिों की एक टीम आम आदमी पार्टी के भीतर जाकर उनकी राजनीति को संचालित करने लगी है. ‘आप’ देश में अलग मिजाज के दल के रूप में अपनी छवि बना रहा है. उसकी कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों से दूरी बनाकर चलना और क्षेत्रीय दलों को “छूने से परहेज” उसी रणनीति का हिस्सा है. दरअसल, ‘आप’ के नेताओं को पता है कि वामपंथी दल के नेताओं का क्षेत्रीय दलों के साथ अच्छा संबंध है. माकपा-भाकपा नेताओं के सपा, जद(यू), जद(एस), राकांपा, बीजू जनता दल और तेदेपा जैसे दल के नेताओं से मधुर संबंध हैं. इतना ही नहीं जरूरत पडऩे पर वामपंथी कांग्रेस को भी समर्थन के लिए साध सकते हैं. लिहाजा, वामपंथियों के हुनर से वाकिफ ‘आप’ के नेताओं को वामपंथियों का साथ सुहा रहा है.
सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस, वामपंथी दोनों एक ही उद्देश्य को लेकर चल रहे हैं. दोनों का मकसद भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है. दोनों तीसरे धड़े को खड़ा करने का मानस लेकर चल रहे हैं. कांग्रेस की तरफ से भी ऐसे संकेत दिए जा चुके हैं कि जरूरत पड़ने पर वह तीसरे मोर्चे को समर्थन दे सकती है. बताया जाता है कि वामपंथी दल दूसरे क्षेत्रीय दलों से संपर्क साध अपनी मुहिम को गति दे रहे हैं. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, जद(यू) नेता शरद यादव व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और राकांपा नेता शरद पवार का मन टटोला जा चुका है. हालांकि, इसमें प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का झगड़ा पैदा होने का खतरा है, लेकिन वामपंथी इस विवाद को लेकर फिलहाल ज्यादा चिंतित नहीं है. उनका अभी एकसूत्रीय एजेंडा भाजपा को रोकना और ‘आप’ को बढ़ाने का है.
वामपंथी दल ‘आप’ को बढ़ाने की हरसंभव कोशिश इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि लोकसभा चुनाव में वह ताकतवर बनकर नहीं उभर रहे. पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी का दबदबा रहने वाला है. त्रिपुरा और केरल की सीटों में भी बंटवारा हो जाएगा और कुछ सीटों के सहारे 2004 की तरह वह किंगमेकर की भूमिका में नहीं आ पाएंगे. इसलिए केंद्रीय सत्ता में उल्टफेर के लिए सीधा रास्ता अपनाने की बजाए वामपंथियों ने घुमावदार रास्ता अपनाने की रणनीति अपना ली है. इस रणनीति में वह कितने सफल होते हैं कहना कठिन है, लेकिन यदि ‘आप’ का प्रदर्शन लोकसभा चुनाव में अच्छा रहा तो राजनीतिक तस्वीर बदल जाएगी. बच्चे सत्ता में होंगे और बुजुर्ग दल बाहर खड़े तमाशा देख रहे होंगे. http://visfot.com