केजरीवाल जी, आप झूठ बोलते हैं

arvindविधानसभा होने के बावजूद दिल्ली एक केन्द्र-शासित प्रदेश है। दिल्ली की भूमि और दिल्ली की पुलिस केंद्र सरकार के अधीन हैं। देश की राजधानी होने के कारण बहुत से विषयों में यह आवश्यक भी है। दिल्ली के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने वास्तविक स्थिति को भलीभांति समझते हुए भी, कि केंद्रीय लोकपाल अधिनियम 2013 के लागू हो जाने बाद अब राज्य सरकारें अपने राज्य के लिए इसमें केवल संशोधन ही कर सकती हैं, अपना जन लोकपाल बिल लाने का प्रयास किया। दिल्ली जैसा राज्य बिना केन्द्रीय आर्थिक सहायता के एक दिन भी चल नहीं सकता। उसके अधिकतर प्रस्ताव केंद्र सरकार की अनुमति से ही पारित किये जाते हैं क्यूंकि यदि इनमें किसी प्रकार के अतिरिक्त वित्त की आवश्यकता हो तो केंद्र सरकार ऐसे होनेवाले अतिरिक्त धन की व्यवस्था कर सके। दूसरी बड़ी बात यह की राज्यों को यह भी सुनिश्चित करना होता है संसद द्वारा पहले से पारित किये गए अधिनियमों का राज्य 0सरकारों प्रस्तुत किये जाने वाले अधिनियमों से किसी प्रकार का टकराव या उल्लंघना न हो।

ऐसे में एक मुख्य मंत्री पद पर रहे केजरीवाल से इन प्रश्नों के उत्तर अपेक्षित है :

केजरीवाल लोकायुक्त में संशोधन की बात न कह कर निरंतर जन लोकपाल बिल को पारित करने की बात कह कर जनता को क्यूँ भरमा रहे थे?

यह जानते हुए कि अतिरिक्त वित्त की आवश्यकता वाले किसी भी बिल को विधानसभा में प्रस्तुत करने से पूर्व उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार को भेजना आवश्यक है, फिर भी तथाकथित लोकपाल बिल को सीधे ही विधानसभा के पटल पर रखने की जिद क्या दर्शाती है?

दिल्ली सरकार के पास अपना कानून मंत्रालय है, ऐसे में बाहर के कुछ प्रसिद्ध वकीलों से तथाकथित लोकपाल बिल पर राय-मशवरा लेना और फिर उसे मीडिया के द्वारा प्रचारित करवाना क्या दर्शाता है? सरकारी काम-काज में एडवोकेट जनरल या एटोर्नी जनरल की भी राय ली जाती है। क्या केजरीवाल ने ऐसा किया? हालांकि बाद में वह भी झूठी बात ही साबित हुई क्यूंकि उन्होंने इस विषय किसी भी प्रकार की राय देने की बात से ही इनकार कर दिया था।

जब भाजपा और कांग्रेस उस तथाकथित लोकपाल बिल को तकनीकी गलियारों के माध्यम से पेश करने पर पारित करने की बार-बार सहमती जता रहे थे तो केजरीवाल अपनी असंवैधानिक जिद पर क्यूँ अड़े थे?

दिल्ली विधानसभा में अन्य दलों की सहमती व मिल कर दिल्ली की आम जनता के सरोकारों के लिए कार्य करने की अपेक्षा सभी से लगातार टकराव की स्थिति क्यूँ पैदा की? क्या दिल्ली और देश की जनता ऐसे ही शासक और शासन की अभिलाषा करती है?

हर बात पर झूठ बोलना और फिर उससे भी बार-बार पलटी मारने की आदत के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाओं और मर्यादाओं की लगातार अनदेखी के चलते जनसरोकारों और जनांदोलनों के माध्यम से राजनीति में प्रवेश करनेवालों की विश्वसनीयता पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

जिस प्रकार का आचरण आम आदमी पार्टी के स्पीकर सहित विधायकों ने दिल्ली विधानसभा में किया था, उससे लोकतान्त्रिक मर्यादाओं और मूल्यों को माननेवाले इस देश के हर नागरिक का सर शर्म से झुकना स्वाभाविक ही है।

मेरे व्यक्तिगत उद्गार और प्रश्न हैं। आप मित्रों के भी विचार जानने का इच्छुक हूँ।

लेखक विनायक शर्मा, पंडोह(मंडी) हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। उनसे संपर्क [email protected] पर किया जा सकता है। http://bhadas4media.com

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