अच्छे दिन वाला विलाप भ्रमित करने वाला है

modi_in_Lok_Sabha_Election-कुमार सुशांत- बहुत सारे लोग ये पूछते हैं- ‘अच्छे दिन आएंगे, क्या हुआ, अच्छे दिन तो आए नहीं, महंगाई बढ़ गई, राजग सरकार द्वारा घोषित पहले रेल बजट में कोई राहत भी नहीं मिली’। ठीक है उनका सवाल जायज है। लेकिन सवाल है कि अच्छे दिन का मापदंड क्या हो ? केवल चीजों के दाम को अनायास घटाना ही अच्छे दिन की परिभाषा है ? क्या सब्सिडी देकर राजकोष पर वजन बढ़ाकर राष्ट्र को वित्तीय रूप से खोखला बनाकर राज करना ही अच्छे दिन हैं ? असल में, 2014 जितने राजनीतिक परिवर्तन का गवाह बना, उसकी उपज बने मौजूदा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस के लंबे शासन से जब जनता ठगा महसूस करने लगी तो इंदिरा गांधी के शासन में देश ने इमरजेंसी देखा। 1977 में देश ने पहले बदलाव को लाकर जनता पार्टी की सरकार बनाई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। लेकिन उसके बाद से एक लंबे अंतराल तक देश नेतृत्व को लेकर असमंजस के हालत में था। सत्ता को यहां हासिल करने के लिए नए-नए मार्केटिंग स्ट्रेटीज बनाए जाने लगे। कभी जनता को लगा कि ये सही है, लेकिन जब परीक्षण की बारी आई तो नेतृत्व फेल। जनता ने कई विकल्पों को तलाशा। चरण सिंह, राजीव गांधी, वीपी सिंह कई विकल्पों को देश ने सिर-आंखों पर बिठाया। लेकिन फिर भी कुछ कमी थी। कांग्रेस व कुछ अन्य शासन में देश को ऐसे ख्वाब भी दिखाए गए जिसे जनता बस अखबारों, टीवी चैनलों व चर्चाओं तक ही सुनकर मन ही मन देश के आगे बढ़ने के सपने संजोती गई, गर्व महसूस करती गई, लेकिन नतीजा सिफर।

नरेंद्र मोदी को स्पष्ट जनादेश मिला। बहुत सारे काम ऐतिहासिक हुए। उन ऐतिहासिक घोषणाओं में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के सपने को परवान दिया गया जिसमें बुलेट ट्रेन को देश में लाकर क्रांति फैलाने की बात कही गई थी। लेकिन स्व. राजीव गांधी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणाओं में एक फर्क दिखा कि सपना दोनों ने देखा। लेकिन एक (स्व. राजीव गांधी) का सपना इन्हीं सवालों में उलझकर रह गया कि बुलेट ट्रेन की रफ्तार या हाई स्पीड की खोज भारतीय रेल की कितनी जरूरत है। या फिर ठसाठस भरे लोगों को रेलगाड़ी में बैठने भर के लिये सीट मुहैया कराना भारतीय रेल की पहली जरूरत है। इन सवालों के बीच बुलेट ट्रेन भारत के लिये एक सपना बनकर रह गयी और ठसाठस लदे लोगों को भारत का सच मान लिया गया। फिर इसे सुधारने का सपना किसी ने देखा ही नहीं। वहीं दूसरे (नरेंद्र मोदी) ने इन सपनों को पंख दे दिया और ऐलान कर दिया कि 60 हजार करोड़ की एक बुलेट ट्रेन मुंब्ई-अहमदाबाद के बीच अगले आम चुनाव से पहले यानी 2019 तक जरूर चल जायेगी। और यह तब हो रहा है जब अहमदाबाद से मंबुई तक के बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट 3 बरस पहले ही तैयार हो चुकी है। बता दें कि 19 जुलाई 2011 में फ्रेंच रेल ट्रांसपोर्ट कंपनी ने 634 किलोमीटर की इस यात्रा को दो घंटे में पूरा करने की बात कही थी और डीपीआर में 56 हजार करोड़ का बजट बताया गया था। इसी तर्ज पर दिसबंर 2012 में ही केरल में कसराडोह और थिरुअंनतपुरम के बीच बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट सरकार को सौंपी जा चुकी है। सवाल है कि ऐसा यूपीए सरकार ने क्यों नहीं करवाया, जबकि सबसे खुले बाजार, उपभोक्ताओं को राहत दिलाने, महंगाई पर अंकुश लाने, अर्थव्यवस्था पर काबू पाने, पर तो सबसे ज्यादा कसमें मनमोहन सिंह और उनके नुमाइंदों ने ही खाई होंगी।

जिस बुलेट को चलाने की बात हो रही है, वो क्या अच्छे दिनों में शुमार नहीं होता ? 9 कोच की बुलेट ट्रेन की कीमत है 60 हजार करोड़ और 17 कोच की राजधानी एक्स प्रेस का खर्च है 75 करोड़। यानी एक बुलेट ट्रेन के बजट में 800 राजधानी एक्सप्रेस चल सकती हैं। बुलेट केवल तेज रफ्तार ही नहीं है, बल्कि एक दूरदर्शी प्लान है जिसमें विदेशी निवेश हमारे देश आएंगे, निवेश करेंगे। रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। देश के कई शहरों को मॉडल टाउन बनाया जाएगा। ऐसा हुआ तो भारत में निवेश किस सीमा तक संभव है, इसका अंदाजा अपने आप में सुखद है। लेकिन सवाल है कि एक हजार करोड़ के रेल बजट में सिर्फ बुलेट ट्रेन के लिये बाकि 59 हजार करोड़ रुपये कहां से आयेंगे। पिछली सरकार में रेल मंत्रालय टिकटों को कालाबाजारी करने वाले दलालों से ही छुटकारा नहीं मिल सका कि ट्रेन की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता। ट्रैक ठीक करने और नये रेलवे ट्रैक के जरिये रेलवे को विस्तार देने के लिये बीते तीस साल से सरकारों के पास 20 हजार करोड़ से लेकर 50 हजार करोड़ रुपये कभी नहीं रहे। नतीजा है कि हर दिन 95 लाख लोग बिना सीट मिले ही रेलगाड़ी में सफर करते हैं और वे इसे ही देश का फॉर्मेट मान चुके थे कि ठसाठस भीड़ में, लटक कर अव्यवस्थाओं के बीच धक्के खा-खाकर घर पहुंचो और फिर अगले दिन धक्के खाने के लिए तैयार हो जाए। आज 30 हजार किलोमीटर ट्रैक सुधारने की जरूरत है और 40 हजार किलोमीटर नया रेलवे ट्रैक बीते 10 बरस से ऐलान तले ही दबा हुआ है। आजादी के बाद से ही रेल इन्फ्रास्ट्क्चर को देश के विकास के साथ जोड़ने की दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं।

अब अगर देश को बुलेट ट्रेन मिल रही है तो समझिए उसके बदले रेल मंत्री सैकड़ों राजधानी एक्सप्रेस को चलवा कर सहानुभूति समेट लेते तो क्या वो होती असली सरकार ? या कोई दूरदर्शी सोचकर कदम उठा रहा है- वो है असली सरकार। अगर सरकार का सचमुच रेल किराया बढ़ाना ही मकसद होता तो 59 हज़ार करोड़ कहां से आएंगे, और पिछली सरकार से जो सौगात में रेलवे को कई हज़ार करोड़ का घाटा हुआ है, उन सबको जोड़कर किराया सीधे दोगुना कर दिया जाता। दिग्भ्रमित अलापों पर न जाइए, अच्छे दिन आए हैं, धीरज रखिए।
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