गरीब इस देश का नागरिक है भी या नहीं

images-सुन्दर लोहिया- इन्दिरा गान्धी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक की सरकारें इस देश के गरीब की जीवन रेखा तय नहीं कर पाई हैं। यह अकारण नहीं है। दोनों पार्टियों के लिए गरीबी उनकी सत्ता को बनाये रखने की आवश्यक शर्त जैसी बन गई है। गरीब के नाम पर हाउसिंग सोसायटी बनाकर सरकारी ज़मीन को लीज़ पर लिया जाता है और बाद में उस ज़मीन पर जो ढांचा खड़ा किया जाता है, उसे नेता अफसर और बनिये मिलकर बांट लेते हैं। गरीब को हासिल बैंक लोन कम दर पर मिलने के कारण गांव का अमीर मुखिया साहूकार या जमींदार उस लोन से गाय भैंस खरीद कर गरीब के घर बांध देता है ताकि वह उसके लिए घास पानी वगैरह उसी तरह जुटाता रहे जिस तरह मालिक के घर पर जुटाता है, लेकिन दूध मालिक के यहां पहुंचेगा और उसे दुहने के लिए मालिक का विश्वस्त करिंदा आयेगा। इसलिए जब कभी गरीबी रेखा तय करने का सवाल आता है तो गरीब की ज़िन्दगी के बारे में यह मानसिकता हावी हो जाती है। इसके तहत गरीब की ज़िन्दगी का मतलब है सिर्फ दो जून की रोटी ही रह जाता है। इस लिए रंगाराजन हो चाहे मॉनटेकसिंह या नरेन्द्र मोदी हो चाहे मनमोहन सिंह, गरीब के भाग्य में दो जून की रोटी के अलावा दूसरे नागरिक अधिकारों की बात करना राजद्रोह माना जाता है। उसके पुनर्वास का मतलब सिर्फ इतना है कि उसे उसकी जि़न्दगी की तमाम सुविधाओं से जिनमें उसकी दो जून की रोटी के अलावा उसके आवास तथा रोजगार का आधार छिने जाने के कारण वैकल्पिक आजीविका बच्चों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य के अनुकूल सामाजिक वातावरण जैसी मानवीय ज़रुरतों को ज़्यादा से ज़्यादा मुआवजा देकर कैसे पूरा किया जा सकता है ? सबको मालूम है कि उसके पास जितना पैसा है उससे वह घर बनाने के लिए ज़मीन खरीद कर परिवार के साथ बसना सम्भव नहीं है। ये बातें अघाये हुए उच्च मध्यम वर्ग को भी निरर्थक लगती है क्योंकि वे एकल परिवार की सन्तानें हैं जहां सिर्फ निज के अस्तित्व को अस्मिता का केन्द्र माना जाता है। इसलिए गरीबी की रेखा तय करने से पहले यह तय करना ज़रूरी हो गया है कि क्या गरीब इस देश का नागरिक है भी या नहीं ?
यदि हैं तो उन्हें संविधान में उल्लिखित जीने के अधिकार के अंतर्गत पुनर्वास के लिए सरकार ज़मीन खरीदने वालों केा बाधित क्यों नहीं करती ?
गरीब के नाम पर एक और साजि़श मोदी सरकार का रेल बजट है। इसे लेकर मोदी का बयान आया है कि यह भविष्योन्मुखी बजट है। भविष्योन्मुखी ज़रूर हो सकता है लेकिन सवाल यह है कि इससे किसका भविष्य सुधरने वाला है ? रेलमन्त्री तेज़ रफ्तार रेलें चलाने के लिए जोर दे रहे हैं, उन्हें रेल की छतों पर सवार होकर यात्रा करने वाले वे नौजवान नहीं दिख रहे जो नौकरी की तलाश में जान जोखिम में डाल कर यात्रा करते हैं। हमारे देशभक्त रेलमन्त्री को महानगरों में रोज़ ठसाठस्स भरे हुए रेल के कम्पार्टमेंट नहीं दिख रहे कि उन्हें ज़्यादा डिब्बों की ज़रूरत है लेकिन मुम्बई से अहमदाबाद के लिए सुपरफास्ट रेल का सपना ज़रूर दिख रहा है। लेकिन रेलवे स्टेशनों पर शुद्ध पेयजल की व्यवस्था के लिए उनकी तारीफ की जा सकती है यदि पानी यात्रियों के लिए मुफ्त उपलब्ध हो लेकिन जब रेल में निजीकरण किया जा रहा है तो शुद्ध पानी मुफ्त में कैसे मिलेगा ? इसलिए निजीकरण मोदी सरकार का हिडन एजेण्डा लग रहा है जो लोगों को सुविधाएं तो देगा लेकिन उसकी पूरी कीमत वसूल करने के बाद। इससे देश के बजाये कम्पनी का ही भला होगा।
मोदी सरकार के पहले आम बजट को लेकर इधर बहुत खुशियां मनाई जा रही हैं कि इसमें वित्तमन्त्री अरुण जेटली ने सबके लिए कुछ न कुछ बांटा है। मैं बजट विशेषज्ञ तो नहीं हूं लेकिन आम नागरिक की तरह सोचने वाला इन्सान हूं इसलिए जब मैं बजट को सरसरी तौर पर अखबार में पढ़ रहा था तो मुझे लगा जेटली ने सचमुच एक ऐसा छाता ताना है जिसमें मध्यमवर्ग किसान कारखानेदार कर्मचारी सब समा रहे हैं लेकिन मोदी सरकार के इस छाते में समाज के उस वर्ग के लिए जगह नहीं है जो सबसे कमज़ोर और दमित है यानि इसमें खेतिहर मज़दूरों के लिए कोई योजना नहीं है। वैसे सारे असंगठित मज़दूर वर्ग को जेटली ने अपने बजट के छाते से बाहर रखा है। उसके नाम पर कोई योजना सरकार के पास नहीं है न उसके कल्याण के लिए कोई संवैधानिक ढांचा स्थापित किया जायेगा जो उनकी उत्पादकता को बढ़ा कर विकासदर को उन्नत कर सके। यह मोदी सरकार के मज़दूर विरोधी चरित्र को उजागर करती है। इसी तरह संस्कृति का क्षेत्र भी मोदी सरकार की कृपादृष्टि से वंचित है जबकि खेलकूद के लिए स्टेडियम बनाने के लिए बजट में प्रावधान है लेकिन रंगमंच और कवि समेल्लन जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के लिए ऑडिटोरियम स्थापित करने की दिशा में एक पैसा भी खर्च करने सिफारिश नहीं है। इसके अलावा ज्ञानविज्ञान के विस्तार के लिए आइआइएम और आइआइटी जैसे संस्थान तो स्थपित किये जायेंगे लेकिन पुस्तक संस्कृति के विकास के लिए और नहीं तो कमसे कम डाकखर्च में कुछ कटौती का प्रावधान करके दिखावा करना भी ज़रूरी नहीं समझा। इस दृष्टि से मैं इस बजट को मज़दूर विरोधी और संस्कृति की उपेक्षा करने वाला मानता हूं।
http://www.hastakshep.com

error: Content is protected !!