शारीरिक भाषा विशेषज्ञ ने बताई मोदी की ब्रिक्स यात्रा की कमियां

modi 1-ख्याति भट्ट– हाल ही में संपन्न ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अंतर्राष्ट्रीय मंच पर दिया गया पहला भाषण उनके फीके प्रदर्शन को समझने के लिए काफी था. हालत चिंताजनक दिखी. एक हद तक उनकी घबराहट और बेचैनी समझ सकते हैं लेकिन अंग्रेजी में भाषण और तैयारियों में कमी को स्पष्ट देख कर ये ज़रूर कह सकते हैं कि ये वो राजनेता नहीं हैं जिन्हें हमने लोकसभा चुनावों से पहले बेहद परिपक्व और आश्वस्त हो कर बात करते सुना था. ये उनके भाषण का कथानक नहीं बल्कि उनकी अपरिपक्वता थी जिसने उनके श्रोताओं को बाहर जाने के लिए प्रेरित किया.

आँख से संपर्क का अभाव:
किसी भी वक्ता के लिए श्रोता के साथ आँखों का संपर्क बेहद ज़रूरी मन जाता है. सामान्य तौर पर किसी भी एक श्रोता के साथ दो या तीन सेकंड तक आँखों से आँखों का संपर्क आवश्यक माना जाता है. एक अच्छे वक्ता की आँखें अपने श्रोताओं से लगातार समपर्क में रहती हैं और किसी विशिष्ट व्यक्ति के साथ संपर्क बनाने के बाद चारों और बैठे दर्शकों के साथ संपर्क बनाने में भी यकीन रखता है. मोदी जी ने बमुश्किल कुछ सेकंड ही आँखों के संपर्क स्थापित करने में खर्च किये और लगभग पूरे समय अपना लिखित भाषण पढने में व्यस्त रहे. ऐसा व्यव्हार श्रोता को आपसे जुड़ने का मौका नहीं देता और उसे ये मानने पर मजबूर करता है की आप सिर्फ अपनी बात कह रहे हैं, न कि उसको संबोधित कर रहे हैं. वो ये मानने को बाध्य हो जाता है कि आपके भाषण के दौरान उसका महत्व आपके पठान सामग्री से कहीं कम है.

पैर स्थानांतरण:
अपने पूरे भाषण के दौरान मोदी लगातार एक पाँव से दूसरे पाँव पर झूलते रहे, एक पेंडुलम की तरह. यह व्यव्हार आपकी गंभीरता को कम करने के लिए काफी है और दर्शकों के मन में ये बात बैठा सकता है कि आप घबराए हुए हैं और एकाग्र नहीं हैं. इस प्रवृत्ति से बचने का तरीका है पैरों के बीच में थोडा अंतर दे कर खड़े होना. अगर आप को इस स्थिति में अधिक देर तक रहना कष्टप्रद लगता है तो आप थोडा अपने कदम थोडा आगे पीछे कर सकते हैं.

खुद का स्पर्श :
ऐसा आचरण घबराहट और आशंका को दर्शाता है. अपना हाथ पकड़ना, चेहरे को छूना आदि आपके अन्दर व्याप्त अविश्वास को सामने लाता है. ये खुद को छद्म रूप से शांत करने की प्रवृत्ति को भी दर्शाता है. अनेक तस्वीरों में मोदी जी को अपने हाथों की उँगलियों की मालिश खुद करते हुए देखा जा सकता है. ऐसे में दर्शकों का काटना स्वाभाविक मान सकते हैं.

मंच पकड़कर:
पोडियम के दोनों सिरे पकड़ कर खड़े होना और फिर अपनी बात कहना स्थायित्व प्रदान करता है, लेकिन साथ ही साथ ये आपको अपने हाथों के माध्यम से भाव व्यक्त करने की स्वतंत्रता से महरूम रखता हैं. जिसने भी मोदी जी को घरेलू दर्शकों के सामने भाषण देते हुए देखा है वो इस बात साक्ची तरह वाकिफ होगा कि मोदी जी अपने हाथों का इस्तेमाल कितनी कुशलता से करते हैं अपने भावों को व्यक्त करने के लिए. ब्रासिलिया में बैठे दर्शक निश्चय ही सोच में डूबे होंगे कि उन्हें आखिर हुआ क्या.

सही भाव प्रदर्शन का अभाव:
अगर आप आवाज़ बंद कर दें तो ये मुश्किल से पहचान पाएंगे कि मोदी जी सम्मलेन में ब्रिक्स की बेहतरी और उसे एक बेहतर विश्व संगठन बनाने की बात कर रहे हैं या कोई राशन की दुकान की पर्ची पढ़ रहे हैं. ब्रिक्स सम्मलेन के दौरान जब कैमरा दर्शकों की तरफ घूम रहा था तो आप देख कर खुद ही समझ जायेंगे कि दर्शक उनसे कटे कटे से हैं . उनकी भाव भंगिमा से लग जाता है कि वो बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं.
ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में स्पष्ट रूप से दिखा कि मोदी जी को बेहतर होम वर्क की ज़रूरत थी, खास तौर से तब जब उन्हें विदेशों में भाषण और संबोधन का अनुभव ज्यादा नहीं है. उन्हें इस क्षेत्र में काम करने की साफ़ ज़रूरत दिखाई दी जो उनकी सामान्य उर्जा के मानक से कहीं कम दिखा. उनकी सामान्य उर्जा, जो आम तौर पर भारतीय दर्शकों के सामने दिखती है वो ब्रासिलिया में खो सी गयी थी. मोदी जी को इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा और सुधार की आवश्यकता को समझना होगा.
(लेखिका एक पेशेवर शारीरिक भाषा विशेषज्ञ हैं)
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