संघ को वोट दिया है या नरेन्द्र मोदी को?

rss– क़मर वहीद नक़वी – चौदह का चुनाव आशाओं और आशंकाओं के बीच एक युद्ध माना जा रहा था। आशंकाएँ तो हूबहू सही साबित होती दिख रही हैं, लेकिन आशाओं की जो छप्पन भोग थाली सजायी गयी थी, वह कहाँ है? और क्या देश उसी रास्ते चलेगा, जो संघ तय करेगा? संघम् शरणम् गच्छामि या अबकी बार मोदी सरकार? जनता ने संघ को वोट दिया है या नरेन्द्र मोदी को? इस पन्द्रह अगस्त पर जनता के बस यही तीन-चार छोटे-छोटे सवाल हैं। उम्मीद हैं कि ये सवाल बहुत कठिन नहीं होंगे!
टकटकी लगी है! सबकी नज़र टिकी है लालक़िले पर! मोदी जी क्या बोलेंगे? बहुत दिनों बाद मोदी जी देश में कुछ बोलेंगे! लोग हैरान हैं। जाने क्या बात है 7 रेसकोर्स रोड में? कोई ‘मौनी हवा’ है क्या वहाँ? जो वहाँ बसता है, वह मौन रहने लगता है!सब अचरज में हैं! नमो जी जैसे बोलबहादुर कैसे ‘चुप’ रहने लगे? या कैसे मन मार कर चुप रहते होंगे? सब हुँकारना-दहाड़ना, गरजना-तरजना ख़त्म! बड़े संयम से ‘मौन व्रत’ चल रहा है! जब मुख्यमंत्री थे तो कम से कम ट्विटर पर ही दिन भर में दिल्ली पर दो-चार हमले कर दिया करते थे! अब दिल्ली फ़तह हो गयी, तो किस पर हमले करें? सो अब ट्विटर के तीर भी नहीं चलते! उधर मीडिया अलग परेशान है। पीएमओ के अँगने में अब मीडिया का क्या काम है?
राजनीति के शो-मैन मोदी
इसलिए सबके कान लगे हैं। देखें नमो क्या बोलते हैं? वह पहली बार लाल क़िले के प्राचीर से बोलेंगे। पिछले पन्द्रह अगस्त को उन्होंने लालन कालेज से लालक़िले पर चढ़ाई की थी। स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण को एक मुख्यमंत्री ने तार-तार कर दिया था। मर्यादा टूटी तो टूटी, क्या फ़र्क़ पड़ता है? फ़र्क़ तो पड़ता है। बशर्ते कि लोग यह न मानते हों कि राजनीति में सब जायज़ है! मर्यादाओं के बिना राजनीति नहीं, सिर्फ़ राज-अनीति ही हो सकती है!
हिन्दी फ़िल्मों के शो-मैन हुआ करते थे राजकपूर! नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीति के शो-मैन हैं! सब भव्य हो। बड़ा हो। झकास हो। ‘वाव’ फ़ैक्टर हो। चुनाव-प्रचार में इसी शो-मैनशिप की चकाचौंध ने विरोधियों को भी चौंधियाया और जनता को भी! इसलिए अब हर कोई उत्सुक है, मोदी समर्थक भी, आलोचक भी और विरोधी दलों के नेता भी। देखें नमो के ‘मैजिक बाक्स’ से पन्द्रह अगस्त को क्या निकलता है? क्या कोई नया जादू निकलता है, कायाकल्प का कोई ‘मेगा-प्लान’ निकलता है या अस्सी दिन बाद भी वही बजट जैसा ‘फुस्स पटाख़ा’ निकलेगा! बजट से भी लोग क्यों निराश हुए? इसीलिए कि लोग उसमें भी कोई बड़ी जादूगरी की उम्मीद कर रहे थे, कि कोई बड़ा झन्नाटेदार महासुपरमैन टाइप बजट होगा। लेकिन बजट वैसा ही निकला, जैसा आमतौर पर बजट होता है!
‘मुँह-दिखाई’ का इन्तज़ार!
लेकिन स्वाधीनता दिवस का भाषण तो हर प्रधानमंत्री के लिए ख़ास होता है। पिछले कामकाज का लेखा-जोखा, भविष्य के सपने, योजनाएँ, लक्ष्य, रोडमैप। बक़ौल नमो, उनका रोडमैप तो काफ़ी पहले से तैयार है। अपनी सरकार का एक महीना पूरा होने पर पिछले 26 जून को उन्होंने ख़ुद अपनी ब्लाग पोस्ट में लिखा था कि वह पिछले दिनों तमाम मंत्रियों और अफ़सरों से मिले, चर्चा हुई, प्रेजेंटेशन हुए और अब विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के ‘बहुत बढ़िया’ रोडमैप तैयार हैं। तब से सबको इन्तज़ार है कि रोडमैप के सुन्दर-सुन्दर मुखड़े उन्हें कब देखने को मिलेंगे। अब तो ‘रिसेप्शन’ हो जाता है, वरना पहले घर में जब नयी बहू आती थी, तो ‘मुँह-दिखाई’ की रस्म हुआ करती थी। नाते-रिश्तेदारों से लेकर पूरा मुहल्ला जुटता था लजाती-सकुचाती नयी बहू का मुखड़ा देखने! तो क्या इन करिश्माई-जादुई रोडमैपों की ‘मुँह-दिखाई’ पन्द्रह अगस्त को होगी? 26 जून से लोग उन्हें देखने की बाट जोह रहे हैं!
अब तक क्या दिखा है? कूटनीतिक कौशल ज़रूर दिखा! शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को न्यौता देकर जो अच्छी शुरूआत की गयी थी, वह सिलसिला प्रधानमंत्री की नेपाल और भूटान की यात्राओं के तौर पर आगे भी जारी रहा। सरकार ने विदेश नीति को सकारात्मक दिशा देने की पहल की, इसके लिए उसकी तारीफ़ करनी होगी। लेकिन सरकार के कूटनीतिज्ञ कौशल की असली परीक्षा तो पाकिस्तान, चीन और फिर उसके बाद श्रीलंका और बांग्लादेश से सम्बन्धों को लेकर ही हो सकेगी, जिसे अभी देखा जाना है। लेकिन क्या चुनाव विदेश नीति को लेकर लड़े गये थे? जनता की सबसे बड़ी समस्या तो दिनोंदिन बढ़ती महँगाई थी। तो टमाटर के नाम पर चुटकुले अब भी चल रहे हैं। परसों ही एक अख़बार में एक तसवीर छपी थी। ग़ाज़ियाबाद में राखियाँ बेचनेवाले एक सज्जन ने पोस्टर टाँग रखे हैं, एक हज़ार रुपये की राखी ख़रीदने पर एक किलो टमाटर मुफ़्त! हालाँकि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ महँगाई में पिछले दो महीनों में काफ़ी कमी आयी है और नमो सरकार इसे एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करने की तैयारी में है। लेकिन सच यह है कि सरकार ने रोग के लक्षण दबाने की कोशिश तो की है, रोग का निदान ढूँढने के बारे में कुछ नहीं किया है। निर्यात पर रोक लगा कर और जमाख़ोरी पर डंडे चमका कर मोदी सरकार ने भी वही किया, जो पिछली सरकार करती रही थी! बदला क्या?
और बदलेगा कैसे? जब तक फलों और सब्ज़ियों के भंडारण के लिए पूरे देश में आधुनिक शीतगृहों का जाल नहीं फैलता और बिचौलियों को ख़त्म नहीं किया जाता, तब तक यह समस्या कैसे हल होगी? अनाज के मामले में भी यही बात है। भंडारण के नाम पर हर साल टनों अनाज सड़ कर बरबाद हो जाता है। अब या तो सरकार ख़ुद ऐसी कुशल भंडारण और वितरण व्यवस्था बनाये और चलाये या फिर बड़ी रिटेल कम्पनियों को आने दे, जो अपने लिए ये सुविधाएँ ख़ुद बना लें। लेकिन रिटेल में एफ़डीआइ आनी नहीं और सरकार ख़ुद भंडारण-वितरण कर नहीं सकती। न इधर जा सकते हैं, न उधर! टँगे रहिए जहाँ के तहाँ।
इतिहास वही जो संघ के मन भाये!
फिर अब तक क्या दिखा? अरे दीनानाथ बतरा जी दिखे कि नहीं दिखे? देश की अगली शिक्षा-नीति की अपनी पोथी तैयार करने में लगे हैं! गुजरात के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली उनकी किताबों में ज्ञान का जो सागर ठाठें मार रहा है, अगर उसकी कुछ छींटें भी यहाँ पड़ गयीं तो देश के बच्चे क्या पढ़ कर बड़े होंगे, और फिर कैसा देश बनायेंगे, अन्दाज़ लगा लीजिए। और उधर देखिए भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद को। वहाँ अब वाई. सुदर्शन राव जी सुशोभित हैं।
इसके पहले देश के इतिहासकारों में उनका नाम नहीं सुना गया था। उनकी सबसे बड़ी योग्यता है कि वह संघ के इतिहासकार हैं! देश का नया इतिहास लिखना है! इसलिए लाये गये हैं! हमने तो सोचा था कि बड़ा-बड़ा विकास करके देश का नया इतिहास लिखा जायेगा। अब पता चला कि पुराना इतिहास कबाड़ कर नया लिखा जायेगा! क्योंकि असली इतिहास वही जो संघ के मन भाये!
और जो संघ के मन न भाये तो? जीएम फ़सलों के मामले में स्वदेशी जागरण मंच ने अड़ंगा लगा दिया। मंच का कहना है कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम फ़सलें ख़तरा हैं। इनका फ़ील्ड ट्रायल फ़िलहाल अटक गया है। वैसे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि विज्ञान को नकारा नहीं जा सकता। बहरहाल, कह नहीं सकते कि सरकार इस मामले में कितना आगे बढ़ेगी? ऐसे ही भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव की बात भारतीय किसान संघ को नहीं सुहा रही है। और रक्षा व रेल में एफ़डीआइ और श्रम क़ानूनों में सुधार को स्वीकार करने के लिए भारतीय मज़दूर संघ राज़ी नहीं।
हिन्दुत्व की नयी प्रयोगशाला
तो यहाँ भी संघ, वहाँ भी संघ, जहाँ देखो, वहाँ संघ। अभी तक सरकार की चौतरफ़ा उपलब्धि यही दिखती है। और वैसे तो अपने उत्तर प्रदेश में सचमुच में कोई सरकार नहीं है, कहने को भले ही अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हों। इसलिए वहाँ भी धूमधड़ाके से संघ काम में लगा हुआ है। अँगरेज़ी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ 16 मई को लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद से अब तक के 81 दिनों में उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक वैमनस्य और संघर्षों की छोटी-बड़ी छह सौ घटनाएँ हुई हैं। इनमें से सत्तर फ़ीसदी घटनाएँ उन 12 विधानसभा क्षेत्रों में हुई हैं, जहाँ अभी उपचुनाव होने हैं। ख़ासतौर से मुसलमानों और दलितों के बीच तनाव बढ़ाने की कोशिशें की गयीं। क्या यह सब यों ही अचानक होने लग गया या कोई योजना बना कर यह सब करा रहा है? आसानी से समझा जा सकता है कि इसके पीछे कौन है और क्यों है? अभी एक हिन्दू युवती के बलात्कार और धर्मान्तरण के आरोपों के बाद संघ ने दस लाख हिन्दुओं को राखी बाँध कर हिन्दुओं और हिन्दू बहन-बेटियों की ‘रक्षा’ की शपथ दिलाने का अभियान छेड़ने की घोषणा की है। ज़ाहिर है कि गुजरात की तरह संघ अब पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश को हिन्दुत्व की नयी प्रयोगशाला में बदल रहा है!
चौदह का चुनाव आशाओं और आशंकाओं के बीच एक युद्ध माना जा रहा था। आशंकाएँ तो हूबहू सही साबित होती दिख रही हैं, लेकिन आशाओं की जो छप्पन भोग थाली सजायी गयी थी, वह कहाँ है? और क्या देश उसी रास्ते चलेगा, जो संघ तय करेगा? संघम् शरणम् गच्छामि या अबकी बार मोदी सरकार? जनता ने संघ को वोट दिया है या नरेन्द्र मोदी को? इस पन्द्रह अगस्त पर जनता के बस यही तीन-चार छोटे-छोटे सवाल हैं। उम्मीद हैं कि ये सवाल बहुत कठिन नहीं होंगे! http://www.hastakshep.com/

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