आइये हिन्दू शब्द का परित्याग करें

mohan bhagvat 1-डॉ सुरेन्द्र सिंह बिष्ट- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी के द्वारा पिछले महीने अगस्त २०१४ में दिये एक वक्तव्य ने समाचार जगत में काफी विवाद पैदा किया. उन्होंने कहा था, “जैसे अमेरिका में रहने वाला व्यक्ति अमेरीकी, इंग्लैंड में रहने वाला इंग्लिश, फ्रांस में रहने वाला फ्रांसीसी है, वैसे ही हिन्दुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है.” क्या उनका यह वक्तव्य सही है और तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है? यदि नहीं तो उसका तर्कसंगत प्रतिवाद होना चाहिए था? दुर्भाग्य से समाचार जगत में उस वक्तव्य पर विवाद तो बहुत हुआ पर सही प्रतिवाद नहीं हो पाया. संघ दशहरा रैली में एक बार फिर उन्होंने यही बात दोहरायी कि हिन्दुत्व ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है. क्या भागवत जी का उपरोक्त वक्तव्य संघ की स्थापना काल से चली आ रही विचारधारा के अनुकूल है?

संघ संस्थापक डा. हेडगेवार जी का भी इस संदर्भ में एक वक्तव्य है पर उसका आशय ठीक विपरीत है. उन्होंने कहा था,” इंग्लैंड अंग्रेजो का, फ्रांस फ्रांसीसियों का, जर्मनी जर्मनों का देश है. इस बात को उपर्युक्त देशों  के निवासी सहर्ष घोषित करते हैं. किन्तु इस अभागे हिन्दुस्थान के स्वामी हिन्दू, स्वयं अपने को इस देश का अधिकारी कहने का साहस नहीं करते. यह विपरीत भाव हममें  क्यो पैदा हो गये?” (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- तत्त्व और व्यवहार, पृष्ठ १५) हेडगेवार जी की बात को ठीक से समझने के लिए उसी पुस्तक के एक और वाक्य  को देखना होगा,” इस देश की पैंतीस करोड़ जनसंख्या में से केवल पच्चीस करोड़ हिन्दू हैं  और शेष दस करोड़ लोग कम से कम आज हिन्दू नहीं हैं . ये दस करोड़ भी पहले कभी हिन्दू ही थे, परन्तु हम अपनी उदासीनता तथा निष्क्रियता के कारण  उन्हे गंवा बैठे हैं ” .( पृष्ठ ९ .उनकी यह बात १९३५ के आसपास की है) भागवत जी का वक्तव्य और हेडगेवार जी के ये दोनों वक्तव्य साथ में देखने पर विसंगति साफ दिखाई देती है. डा. हेडगेवार जी के वाक्यों में भारत में रहने वाले हिन्दू और गैर हिन्दुओं  मे भेद साफ है . पर भागवत जी सभी को हिन्दू कहने पर तुले हैं. तो क्या संघ घोषित करेगा कि हेडगेवार जी के विचारों  को त्याग कर उसने नए विचार बना लिए हैं ?

संघ का घोषित ध्येय, ” हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का सरंक्षण करते हुए ” इसप्रकार बताया जाता है. अब अगर संघ यह मानता है कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है अर्थात हिन्दू यह राष्ट्र वाचक संज्ञा है तो फ़िर उसके ध्येय में जो हिन्दू धर्म की सरंक्षण की बात की गयी है, उसका मतलब क्या है?  क्या भागवत जी के वक्तव्य और संघ के इस ध्येय में कोई विसंगति नहीं है ? अगर हिन्दू यह राष्ट्र वाचक संज्ञा है तो आज जिसे हिन्दू धर्मं कहा जाता है, भागवत जी के अनुसार उसकी क्या संज्ञा है ? या इस भ्रम को बनाये रखना ही उनके संघ के लिए पोषक मानते हैं? संघ परिवार के वर्त्तमान विचारों  की विसंगति तब और भी साफ हो जाती है जब संघ का एक नेता कहता है कि  भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है और दूसरा नेता कहता है कि  भारत में हिन्दुओं  की जनसंख्या का घटते जाना चिंता का विषय है ! क्या भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू होना और भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या घटते जाना, दोनों बातें एकसाथ संभव हैं? हेडगेवार जी साफ़ दिमाग के व्यक्ति थे और स्पष्टवादी व्यक्ति थे इसलिए वे इतना महान संगठन खड़ा कर पाए. धर्म क्या है, हिन्दू कौन है आदि बातों  को वे धर्माचार्यों  पर छोड़ते थे पर बाद में संघ ने सभी कामों  को अपना मान  लिया और वहीं  से गड़बड़ भी शुरू हो गयी . क्या आज जो भ्रामक विचार संघ में व्याप्त हो गए हैं वे भटकाव नहीं पैदा करेंगे?

तो क्या संघ परिवार मे और भी भ्रामक विचार व्याप्त हैं? कुछ बानगी देखिये-
१. संघ ने अपने प्रभात काल की वंदना में गाँधी जी का नाम भी महापुरुषों में शामिल किया है. पर क्या संघ ने पूरी तरह से अन्य महापुरुषों की तरह गांधीजी को अपना लिया है ? यदि हां,तो फिर संघ परिवार से जुड़े अनेकों  पुस्तकालयों में गोडसे की पुस्तक ” गाँधी हत्या क्यों ?” को आज भी  क्यों बेचा जाता है ? क्या इन दोनों बातो में कोई विसंगति नहीं है?

२. संघ अब भी १९४७  मे हुए भारत विभाजन का विरोध करता है, उसे कृत्रिम मानता है और फ़िर से  अखंड भारत बनाने की बात करता है. अर्थात वर्त्तमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर  फ़िर एक राष्ट्र बनाने की बात होती है. पर साथ ही बांग्लादेश से आने वालों  को घुसपैठिया भी कहता है और उन्हें देश के लिए खतरा बता कर उन्हे भगाने की बात करता है. अगर आप भारत विभाजन को गलत मानते हो, अखंड भारत की बात करते हो और भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को हिन्दू मानते हो तो फिर बांग्लादेश से आ रहे लोग तो आपका ही काम अघोषित तौर पर कर रहें हैं या नहीं ? पर इस विसंगति के साथ भी संघ चल ही रहा है !

३.  आजकल ” लव जिहाद ” पर हल्ला मचा हुआ है, और वह हल्ला भी प्रमुख रूप से संघ परिवार ही कर रहा है. अगर आपके अनुसार हर भारतीय हिन्दू है तो लव जिहाद का प्रश्न आपके मन में उठना ही क्यों चाहिए ? पर संघ परिवार को इसमे भी कोई विसंगति नहीं दिख रही होगी!

४. डा . हेडगेवार ने कहा था कि प्रत्येक संघ के कार्यकर्ता का आदर्श शिवाजी महाराज हैं. पर क्या आज भी हैं? व्यवहार में तो स्वामी विवेकानंद जी अधिकांश संघ कार्यकर्ताओं के आदर्श दिखाई देते हैं. इसका प्रमाण है कि अधिकांश संघ कार्यकर्ताओं के घर पर स्वामी विवेकानंद जी का चित्र मिल जायेगा पर शिवाजी महाराज का चित्र किसी बिरले के ही घर पर मिलेगा. मैंने तो दिल्ली संघ कार्यालय में देखा कि अन्य सारे महापुरुषों के चित्र बेचे जा रहें हैं पर शिवाजी महाराज का एक भी चित्र नहीं था पर शायद इसमें भी संघ को कोई विसंगति नहीं नजर आती!

उपरोक्त उदाहरण संघ में व्याप्त वैचारिक विभ्रम दर्शाने के लिए प्रयाप्त है. संघ परिवार का ऐसे वैचारिक विभ्रम न केवल उस संगठन की प्रगति में बाधक है बल्कि वह देश के लिए भी घातक है. इन वैचारिक विभ्रमों का दूर होना सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) और भारत राष्ट्र दोनों के हित के लिए परमावश्यक है. अस्तु, मूल विषय की और मीमांसा जरुरी है.

सिन्धु नदी से पश्चिम की ओर  रहने वाली दो सभ्यताओ ने भारत को दो नाम दिये. ये दोनों नाम सिन्धु नदी पर आधारित हैं और अति प्राचीन हैं. अरब जगत ने भारत को हिन्द कहा और यूरोप ने इंडिया कहा. दिल्ली के बिडला मंदिर में एक अरबी कविता खुदी है जिसके बारे में लिखा है कि वह हजरत मोहम्मद पैगम्बर से सैकडों वर्ष पुरानी है. इसमें ईश्वर ने मानव के लिए ज्ञान भंडार के रूप में वेदों को अवतरित करने के लिए हिन्द को चुना इसलिए उस हिन्द का पुण्य स्मरण है. इसी प्रकार सिकंदर के साथ आये मेगास्थानिस ने अपना यात्रा विवरण लिखा था वह भी २३०० वर्ष पुराना है और उसका नाम “इंडिका” है. अर्थात ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म की स्थापना के पूर्व से ही ये पश्चिमी सभ्यताएं भारत को हिन्द और इंडिया कहती रहीं  हैं. पर विडम्बना देखीये, संघ परिवार इंडिया शब्द का जी तोड़ विरोध करता है और हिन्दू शब्द का जी तोड़ समर्थन!

यदि इतिहास में गोता लगायें  तो पाते हैं कि हिन्दू शब्द भारत में था ही नहीं. संस्कृत सहित किसी भी भारतीय भाषा में मुस्लिम आक्रमणों से पूर्व हिन्दू शब्द नहीं है.जैसे कि प्रख्यात कवि और लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने भी अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि -“प्राचीन संस्कृत और पाली-ग्रन्थों में हिन्दू नाम कहीं भी नहीं मिलता। किन्तु, भारत से बाहर के लोग भारत अथवा भारतवासियों को हिन्दू या ‘इंडो’ कहा करते थे, इसके प्रमाण हैं।” अरबी- तुर्की -पारसी मुस्लिमों  ने अपने से भिन्न भारतीयों को हिन्दू कहना प्रारंभ किया और उस पतन काल में हमारे पूर्वजों ने अपने धर्म का नाम हिन्दू स्वीकार लिया और अपने देश का नाम हिंदुस्तान स्वीकार लिया जैसे बाद में अंग्रेजों  की गुलामी के समय उन्हीं  की तरह हमने भारत को इंडिया कहना शुरू कर दिया और स्वयं को इंडियन! अंग्रेजों से स्वतंत्रता के पश्चात् जैसे हमने इंडिया और इंडियन शब्दों को त्यागना प्रारंभ कर दिया, वैसे ही मध्य काल में समय न मिलने के कारण आजादी के बाद ही सही, हिन्दू और हिंदुस्तान शब्द का भी परित्याग प्रारंभ करना आत्मगौरव की बात होती.
http://visfot.com/

1 thought on “आइये हिन्दू शब्द का परित्याग करें”

  1. 1. लेखक डा. सुरेन्द्र सिंह जी बिष्ट महोदय अध कचरे ज्ञान के सहारे या पूर्व ग्रस्त धारणा लेकर ये लेख लिख रहे हैं ऐसा प्रतीत होता है ।संघ ने ना तो कभी शिवाजी को छोड़ा ना ही उसे भुलाया है ।संघ के 6 मुख्य उत्सवों में सबसे प्रमुख उत्सव हिन्दू साम्राज्य दिवस छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्या रोहण के दिन हर साल मनाया जाता है ।

Comments are closed.

error: Content is protected !!