निकाय चुनाव में कांग्रेस की शिथिलता के मायने क्या हैं?

urban-body electionsविधानसभा व लोकसभा चुनाव में जमीन चाट चुकी कांग्रेस के निराश व हताश कार्यकर्ताओं को विधानसभा उपचुनाव में चार में से तीन पर जीत हासिल होने के साथ जो ऊर्जा मिली थी, उसकी हवा निकाय चुनाव में निकल गई। राजनीति के जानकार उम्मीद कर रहे थे कि कांग्रेस उपचुनाव की तरह भले न सही, मगर कुछ तो अच्छा प्रदर्शन करेगी, मगर वैसा कुछ हुआ नहीं। ऐसे में भाजपा की इस जीत को मोदी लहर की अब भी मौजूदगी माना जाए या फिर वसुंधरा राजे की सरकार की परफोरमेंस, भाजपाई जरूर इसकी हामी भरेंगे, मगर निष्पक्ष जानकारों का मानना है कि ये दो फैक्टर जरूर कुछ-कुछ प्रतिशत काम कर रहे थे, मगर ज्यादा असरकारक था, भाजपा का केन्द्र व राज्य में सत्तारूढ़ होना। जाहिर तौर पर भाजपा को सरकारी मशीनरी का भी लाभ मिला ही है। मगर उससे भी महत्वपूर्ण ये रहा कि तकरीबन एक साल बीत जाने के बाद भी राज्य में अभी तक राजनीतिक रेवडिय़ां नहीं बंटी हैं, इस कारण भाजपा के छुटभैये नेता पूरी ताकत के साथ चुनाव मैदान में उतरे। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी चुनाव प्रभारी व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया के माध्यम से कमान कसे रखी ताकि उपचुनाव में हुई हार का बदला लिया जा सके।
दूसरी ओर बात अगर कांग्रेस की करें तो कहीं से भी ये नहीं लगा कि कांग्रेस इस चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साहित है। विशेष रूप से विधानसभा उपचुनाव में जीत के बाद उससे यह अपेक्षा थी कि वह पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ेगी। मगर ऐसा होता कहीं नहीं दिखा। वजह साफ है। उपचुनाव चूंकि सीमित स्थानों पर थे, इस कारण प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने उन पर ठीक से फोकस किया व खुद मॉनिटरिंग की, मगर चूंकि निकाय चुनाव कई स्थानों पर थे, इस कारण उन्हें टीम पर ही भरोसा करना पड़ा। सब जानते हैं कि यह वही पुरानी टीम थी, जिसकी मौजूदगी में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। हालांकि सचिन ने इस टीम में अपने चहेतों को स्थान दिया था, मगर ज्यादा संख्या उनसे इतर अन्य लॉबियों के नेता मौजूद थे, जिन्होंने पूरे उत्साह के साथ काम करके उसकी के्रडिट सचिन को देना मुनासिब नहीं समझा। यही वजह रही कि जैसे ही चुनाव परिणाम आए, उसके चंद दिन बाद ही हाईकमान ने मौजूदा कार्यकारिणी भंग कर दी और साल भर की मशक्कत कर तैयार की गई टीम को मंजूरी दे दी।
राजनीति के जानकारों का मानना है कि इस चुनाव में कांग्रेस ने सोची समझी रणनीति कि तहत ज्यादा दिमाग नहीं लगाया। अंदरखाने के सूत्र बताते हैं कि सचिन के इर्द-गिर्द की टीम की सोच थी कि यदि अतिरिक्त ऊर्जा व पैसा लगा कर पूरी मेहनत करके कुछ बोर्डों पर कब्जा कर भी लिया गया तो उन्हें राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा ठीक से काम नहीं कर देगी। उनकी योजनाओं में अड़ंगा लगाएगी। ऐसे में नॉन परफोरमेंस का ठीकरा कांग्रेस पर फूटेगा। जो कि आगे पांच साल बाद दिक्कत करेगा। कांग्रेस थिंक टैंकरों का मानना रहा कि अधिक स्थानों पर भाजपा के बोर्ड बनने दिए जाएं। इस आशय का बयान पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी दिया कि आमतौर पर निकाय चुनाव में भाजप ही जीतती आई है, यानि कि कांग्रेस ने खुद की हथियार डाल रखे थे। सोच ये है कि आम तौर पर निकाय जनता को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर पाते, चूंकि उनके पास संसाधनों का अभाव होता है। वे तो कर्मचारियों की तनख्वाह भी मुश्किल से निकाल पाते हैं। ऐसे में अगर जनता में नाराजगी उत्पन्न हो तो उसे पांच साल बाद भुनाया जाए। यानि कि एक अर्थ में कांग्रेस ने कई कारणों से जानबूझ कर निकाय चुनाव में लापरवाही सी बरती। जो भी हो, मगर चूंकि सचिन अपनी पसंद की कार्यकारणी बना चुके हैं, इस कारण वे अब ये बहाना नहीं बना पाएंगे कि वे ऐसी ट्रेन के पायलट थे, जिसके डब्बे उनके मुताबिक नहीं चल रहे थे।
-तेजवानी गिरधर

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