-अभय कुमार दुबे, प्रोफ़ेसर, सीएसडीएस, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए-
जैसे ही यह ख़बर फैली कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए पच्चीस साल की माँग की है, वैसे ही भाजपा को सफ़ाई देनी पड़ गई.
पार्टी ने फटाफट उनके भाषण का वीडियो जारी करके बताया कि शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए नहीं, बल्कि भारत को ‘विश्व गुरु’ की पदवी पर बिठाने के लिए पूरी चौथाई सदी तक भाजपा को जिताते रहने की माँग की है.
हो सकता है कि भाजपा के प्रचार विभाग का दावा सही हो, पर सवाल यह है कि जैसे ही यह ख़बर प्रसारित हुई, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों ने इस बात पर यक़ीन कैसे कर लिया कि अमित शाह ने निश्चित रूप से ऐसा ही कहा होगा?
किसी ने इस कथित वक्तव्य पर स्वाभाविक रूप से संदेह क्यों नहीं किया? बात केवल इतनी नहीं है कि दिग्विजय सिंह और अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके अमित शाह और उनकी पार्टी की खिल्ली उड़ाई.
बात यह भी है कि पत्रकारों, मीडियाकर्मियों या सोशल मीडिया पर सक्रिय राजनीतिक टिप्पणीकारों ने ख़बर और उसके खंडन के बीच के तकरीबन दस-बारह घंटों के दौरान यह मान ही लिया था कि सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष ने ऐसा कहा ही होगा!
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दरअसल, पिछले तेरह महीने से नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत पूरी भाजपा जिस भाषा में चुनाव के दौरान किए गए वादों की व्याख्या कर रही है, उसी ने ऐसा माहौल बनाया कि लोगों को बेसाख़्ता अमित शाह के नाम से जारी किए गए इस बयान पर यक़ीन हो गया.
चुनाव जीतने के बाद से ही भाजपा इस राजनीतिक थीसिस पर काम कर रही है कि चुनाव प्रचार के दौरान कही जाने वाली बातों की कसौटी पर उसकी सरकार के प्रदर्शन को नहीं कसा जाना चाहिए.
जीत के बाद बड़ोदरा में दिए गए अपने पहले भाषण में ही मोदी ने इस रणनीति की ओर इशारा कर दिया था.
चुनावी जुमला
इसके बाद एक पूरा सिलसिला चल निकला जिसमें बार-बार नागरिकों को यह संदेश दिया गया कि चुनाव जीतने के लिए लफ़्फ़ाजी करनी पड़ती है, पर सरकार चलाना एक कहीं ज़्यादा गम्भीर काम है.
सबसे पहले सौ दिन में महंगाई कम करने के वादे की गम्भीरता को भाजपा के प्रवक्ताओं ने मौसमी और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के हवालों से दरकिनार किया.
फिर, प्रधानमंत्री ने अपनी ‘मन की बात’ में कह दिया कि न उन्हें पता है कि विदेशों में कितना काला धन है और न ही पिछली सरकार को पता था.
फिर अमित शाह ने इसे और साफ़ करते हुए जनता को समझाया कि सभी के खातों में पंद्रह-पंद्रह लाख जमा करने का वादा तो महज एक चुनावी जुमला था.
यह प्रक्रिया उस समय अपने चरम पर पहुँच गई जब पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में साफ़ रूप से दर्ज खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश न लाने के वादे से पार्टी 180 डिग्री घूम गई.
वादा तेरा वादा…
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो सरकार के बचाव में यहां तक कह डाला कि ‘हम अभी भी अपने घोषणापत्र के वादे पर टिके हुए हैं, पर सरकार चलाते हुए हम पिछली सरकार द्वारा चलाई गई प्रक्रिया को जारी रख रहे हैं.’
बेरोजगारों को रोज़गार देने का वादा अभी तक हवा में लटका हुआ है.
किसान यह कैसे भूल सकते हैं कि चुनावी भाषण करते हुए मोदी ने उनसे बार-बार खेती में होने वाले सभी खर्चों को गिनाते हुए दावा किया था कि उनकी सरकार इन तमाम खर्चों के ऊपर पचास फ़ीसदी मुनाफा देने वाला ‘एमएसपी’ यानी न्यूनतम खरीद मूल्य जारी करेगी.
अब हम प्रतीक्षा कर सकते हैं कि जब बेरोज़गार और किसान मोदी को इन वादों की याद दिलाएँगे तो शाह-जेटली कंपनी की दलील क्या होगी!
‘विश्व गुरु के लिए नहीं दिया वोट’
हक़ीक़त यह है कि देश की जनता ने ‘विश्व गुरु’ बनने के लिए या ‘महाशक्ति’ बनने के लिए मोदी को वोट नहीं दिया था.
वोटरों की तीन फौरी जरूरतें थीं. पहली, महंगाई कम हो. दूसरी, भ्रष्टाचार घटे. और तीसरी, रोजगार मिले.
इन्हीं तीन मोर्चों पर नाकामी की वजह से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार हारी थी. इस समय मोदी सरकार की आँखों में भ्रष्टाचार का मुद्दा एक किरकिरी की तरह चुभ रहा है.
यूपीए सरकार के कार्यकाल की किसी अवधि में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों, राज्य सरकार और केंद्र के मंत्रियों पर एक साथ इतने कम समय में इतने आरोप शायद ही लगे थे.
मोदी ने कहा था कि ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’. क्या इसका जवाब यह होना चाहिए कि ‘यह एनडीए सरकार है, यहाँ यूपीए की तरह इस्तीफ़े नहीं होते’?
यही है वह छोटा सा इतिहास जिसकी रोशनी में देखने पर एक बारगी यह लगने लगता है कि कहीं अमित शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए वास्तव में पच्चीस साल तो नहीं माँग लिए थे!
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भारतीय भाषा कार्यक्रम का निदेशक और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
