एक ऐतिहासिक कानून को दस साल

babu lal naga 1-बाबूलाल नागा- सूचना का अधिकार कानून को लागू हुए दस वर्ष पूरे हो गए हैं। 12 अक्टूबर को जब सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ तो किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि यह पारदर्शिता और जबावदेही से बचने वाली हमारी सरकारी व्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव ला पाएगा। लेकिन आज तमाम छोटी-छोटी जगहों पर काम करने वाले आरटीआई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस कानून को भ्रष्टाचार और प्रशासन से लड़़ने का एक मजबूत हथियार बना लिया है। लोग जितना निडर होकर इस कानून का इस्तेमाल कर रहे हैं, उतना ही भ्रष्ट नौकरशाही और राजनीति पटरी पर आने को मजबूर हुई है।
सूचना का अधिकार कानून लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी को सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक कानून है। यह कानून जनता के संघर्ष से बना ऐसा कानून है, जो आम जनता को भारतीय लोकतंत्र में मालिक होने का अहसास देता है। यह भ्रष्टाचार को चुनौती देने और सत्ता का दुरुपयोग रोकने के लिए सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी बनाने में सक्षम है। पिछले दस सालों में सूचना के अधिकार के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है। इस कानून ने गांव और कस्बों तक अपनी पैठ बनाई है। इन सबके बावजूद भी अभी भी सूचना के अधिकार कानून को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। देश की सरकारें इस अधिनियम को मूर्त रूप देने के लिए बनाए मूल प्रावधानों को क्रियांवित नहीं कर पा रही है। सरकार के कुछ वर्गों का मानना है कि यह कानून उनके कामकाज में मुश्किल पैदा कर रहा है। इससे देश का पैसा और सरकारी कर्मचारियों का समय बर्बाद हो रहा है। इसी का नतीजा है कि अभी सरकारें स्व प्रेरणा से धारा 4 के अनुसार सारी सूचनाएं खुले में लाने के अपने उत्तरादायित्व में असफल रही हैं।
सूचना के अधिकर में बदलाव की कोशिशें लगातार होती रही हैं। कानून के तहत फाइल पर लिखी जाने वाली टिप्पणी को सूचना के दायरे से बाहर करने की कोशिश की गई थी। दूसरी तरफ लगातार नौकरशाही और राजनेताओं की ओर से सूचना के अधिकार के पर कतरे जाने की कोशिशें की जा रही हैं। राजनीति दल सूचना के अधिकार कानून के तहत जवाब देने से कतरा रहे हैं। राजनीतिक दलों को डर है कि सूचना का अधिकार के दायरे में आने के बाद उन्हें पाई-पाई का हिसाब देना होगा । इसी कारण वे सार्वनजिक रूप से अपनी जांच के लिए तैयार नहीं हैं। वे सूचना का अधिकार के तहत पारदर्शी व जवाबदेह बनने के लिए कोई इच्छाशक्ति नहीं रखते हैं। दूसरी तरफ सरकार भी सूचना का अधिकार कानून को मजबूत बनाने के लिए नहीं बल्कि कमजोर करने के लिए कानून को बदलने के मूड में है। हाल में केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की योजना बनाई। एक तरफ सरकार सूचना के अधिकार कानून को कमजोर कर रही हैं, वही दूसरी तरफ सूचना के अधिकार कानून को काम में लेने वालों को कई खतरों से रूबरू होना पड़ रहा है। सूचना के अधिकार से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज दबाने की कोशिशें की जा रही हैं। ऐसा नहीं हैं कि सरकार आरटीआई कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न, उन पर होने वाले हमलों और उनकी हत्याओं से अनजान हैं। दरअसल, सरकार ने इन्हें अनदेखा करने का रवैया अपना रखा है। आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या या उन पर जानलेवा हमलों के लगातार मामले बढ़ रहे हैं। इससे यह साफ है कि एक तरफ सरकार अपनी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और ईमानदारी लाने में विफल है तो दूसरी तरफ वह भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने वालों को संरक्षण देने संबंधी उपायों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझती।
बहरहाल, सूचना के अधिकार को प्रभावशाली तरीके से लागू करने के लिए सरकारों को विशेष प्रयास करना चाहिए। मानव अधिकारों की रक्षा करने के लिए उन कानूनों व तरीकों का कड़ाई से पालना होनी चाहिए जिनका समाज के कुछ समूहों पर असर पड़ता है। (लेखक विविधा फीचर्स के संपादक हैं)
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