भविष्य के शोर में इतिहास की आहट

रास बिहारी गौड़
रास बिहारी गौड़
बहुत दिनों से मैंने अनावश्यक चुप्पी ओढ़ रखी थी। सोच रहा था ,”अंधे शोर में बोलना, शोर की ताकत को बढ़ना है।” फिर ये भी लगा कि अपने सामने आवाजो की मौत के बीच आत्महंता होकर कोई जिन्दा आदमी कितनी देर गूँगा रह सकता है। कम से कम उस वक्त जब देश पेट थामे पूँजी के नए राजनैतिक सम्मोहन को समझने की कोशिश कर रहा हो।
रातो रात देश की करेंसी बदल कर सुपर पावर का अंहकार आँखों को सपने बाँट रहा है या अँधेरे..? आम नागरिक को देशप्रेम का पाठ पढ़ा रहा है या उसे आर्थिक अपराधी होने का अहसास सौप रहा है..? पूंजी के विराट गुम्बदों को ढहाने की पूर्वपीठिका है या पाई- पाई पैसा जमा करती जिजीविषा को पाँव तले मसलने की तैयारी…? जो भी हो, राजनैतिक चश्मे और अंधभक्ति से इतर देखने से प्रथमदृष्टया लगता है कि जल्दबाजी में लिया निर्णय देश की आर्थिकी और सामाजिक ताने बाने से खेल रहा है। यद्यपि हम दुआ करते हैं, हमारा ये अनुमान गलत सिद्ध हो। काश! हो पाता।
जिन धनकुबेरों की आड़ में सारा बखेड़ा खड़ा किया ,कहने की जरुरत नहीं वे अपने रास्ते ढूंढ लेंगे। लेकिन मध्यम, निम्न- मध्यम या निम्न वर्गीय जन जिनके दिन की कीमत शाम का निवाला होती है , घण्टो बैंक की लाइनों में खड़े-खड़े अपना अपराध याद कर रहे हैं। नीति-नियंताओं का तर्क है कि उनके पास पाँच सौ या हजार के नोट कहाँ से आये। तो, महोदय को पता होना चाहिए मुद्रा- स्फीति की दर से इन नोटों का मूल्य क्या और कितना है। फिर मेहनतकश आदमी दो सो रूपये किलो दाल के युग में सिंचित पूंजी के रूप में हजार -पांच सौ के नॉट से कितने बच्चों का पेट पाल सकता है। कल्पना कीजिए कि मध्यम वर्ग का एक सरकारी या निजी कर्मचारी जो अपनी नौकरी के अतिरिक्तर दो से तीन घंटे कोई ट्यूशन / पार्ट टाइम काम करता है, उसकी पत्नी पापड़ बनाकर कुछ अतिरिक्त अर्जित करती है ,दोनों ने अपनी वैध अवैध इच्छाओं को मारकर पिछले आठ दस वर्षो में कुछ लाख रूपये इकठ्ठे किए,जिन्हें उन्होंने इधर- उधर आड़े समय के लिए रख छोड़े हैं ।आज उन्हें उस कमाई हिसाब बताना है। मेहनत से कमाया ये धन, काला धन नहीं है, उन्हें सिद्ध करना है। हम अपने आप से डर रहे हैं कि कहीं सिस्टम हमे आर्थिक अपराधी ना मान ले, खुद को निर्दोष साबित करने में उम्र गुजर जायेगी। सब जानते है कि दरवाजे पर पुलिस वाला काल बेल बजा दे ,तो दिल की खुदबखुद घंटी बज उठती है और आयकर विभाग के कागज़ का टुकडे को देखकर आदमी खुद कागज सा फड़फड़ाने लगता है। अब पुलिस और आयकर विभाग को आपके- हमारे के घर का पता बताया जा रहा है।
नियंताओं का तर्क है कि कुछ दिन की परेशानी है। ईमानदार को नहीं डरना चाहिए। फ़ौज भी तो देश-सेवा में खडी है। आदि- आदि । साथ ही दो लाख से ज्यादा के विनिमय पर आयकर की नजर है, नगद- विनिमय को बंद करना है, अभी तो शुरुवात है, वगैरा- वगैरा। इस विरोधभास का परिणाम हर व्यक्ति अपराधी है। काले धन का वाहक है। क्योंकि स्वम या पत्नी या बच्चों के पास कुछ ऐसा सिंचित धन है जिसे उन्होंने बैंक में जमा नहीं करवाया या कोई विशिष्ठ हिसाब नहीं है। जिस अमेरिका या जापान का उदाहरण दिया जा रहा है वहां साक्षरता, नीतिगत व्यवस्तायें, बच्चों की मुफ़्त शिक्षा, चिकत्सक सुविधाएं और सबसे बड़ी बात आबादी हमसे तीन गुना कम, क्षेत्रफल तीन और संसाधन तीस गुना अधिक है । वहाँ जीवन शैली पांच दिन काम कर वीकेंड सलिब्रेटे करने की है। हमारी पहचान बुरे वक्त में जीवन जीने की जिद से है। यहाँ बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाने से लेकर माकूल इलाज करवाने तक अतिरिक्त धन की जरुरत पड़ती है। शादी, विवाह से लेकर जन्म, मरण ,परण ,सरीखे अनेको सांस्कृतिक धार्मिक अनुष्ठान अभावों के बावजूद भव्य उत्सवधर्मिता की बाध्यता लिए होते हैं। उस समय यही आपात सिंचित पूंजी काम आती है। घरवालियां ऐसी ही परिस्थितियों में अपना एकत्रित धन परिवार को सौंपती हैं। जो पेट काटकर इकठ्ठा किया है। जिसे नई आर्थिक नीति के तहत काला माना जायेगा या फिर इसे सफ़ेद सिद्ध करने के लिए कानूनी दरवाजो पर वेसे ही खड़ा होना होगा जैसे आज हम बैंक के सामने खड़े हुए हैं। गौरतलब है कि जब 2008 में पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, तब यही मध्यम वर्ग बचत हमे बचा कर ले गई थी।
किसी भी देश की आर्थिकी उसके समाज- विज्ञान को संचलित करती है। देश का संचालन व्यापरिक दृष्टि से नहीं होता उसका संचालन परम्पराओं के पोषण से होता है। जहाँ तक काले धन का सवाल है तो उसका अधिसंख्य आज भी राजनेता, माफिया, धर्मगुरुओं, बड़े उधोगपतियों के पास ही है। सुचिता की शुरुवात आप अपने राजनैतिक कुनबे से कर सकते थे। पानी का बहाव ऊपर से नीचे की ओर होता है।
हमारे अच्छे दिन तो ए टी एम् की लाइन में खड़े ,बाजार की सूनी गालिया से गुजरते ,रोजमर्रा की जरुरतो के स्थगित करते हुए, कट ही जाएंगे। लेकिन कालाधन तो दो हजार के नोट की शक्ल में आधा रास्ता तय करने की राह पे निकल ही पड़ा है । ये सब ठीक वैसा ही है ,” किसी कॉलोनी में छुपे गुंडों को पकड़ने के लिए कॉलोनी पर बमबारी कर दी।परिमाण ..बम के धुंए में बदमाश तो भाग गए और काले मुँह लेकर मोहल्ले वाले अपने बेगुनाही के सबूत दे रहे हैं।”
पता नहीं क्या होगा। हाँ, इतिहास में कुछ शासकों के नाम पढ़े हैं जिन्होंने कर्रेंसी से छेड़छाड़ की…परिणाम के लिए सबको वह इतिहास पढ़ने चाहिए। सुखद भविष्य के शोर में के इतिहास की आहट सुनाई तो दे रही है। ईश्वर करे ये हमारे कानों का वहम हो।

रास बिहारी गौड़
www.rasbiharigaur.com

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