कानून का रंग ?

sohanpal singh
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लगता है कि अब समय आ गया है जब व्यवस्था से गुस्साए लोग मनुस्मृति की तरह वर्तमान कानून की किताबों की होली जलाएंगे ? हम यह बात ऐसे ही नहीं कह रहे हैं यह बात इस समाचार के बाद उभर रही है जब गाज़ियाबाद की सीबीआई अदालत ने 1996 में भोजपुर जिला ग़ाज़ियाबाद के 4 निर्दोष लोगों को पुलिस ने फर्जी एनकाउंटर में मार गिराय था अब उस केस में 4 पुलिस कर्मियों को दोषी करार दिया है कल सजा भी हो जायेगी , पीड़ित लोगो के परिवार को निश्चित ही कुछ सांत्वना मिलेगी लेकिन इन 20 वर्षो में उनकी जो हालात हुई है क्या कानून उसकी भरपाई भी करेगा शायद नहीं ? दूसरी अदालती घटना माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2005 के सरोजनी नगर नसी दिल्ली ब्लास्ट मामले के दो आरोपियों को बरी कर दिया है तथा एक को 10 वर्ष की सजा डीई है लेकिन उसे भी 10 वर्षो से अधिक जेल में रहने के कारण रिहा कर दिया है ? अब सवाल यह है कि जब सरकार त्वरित न्याय नहीं दे सकती तो उसे निर्दोष लोगो को जेल में रखने का क्या हक़ है ? क्योंकि ये 1860 के क़ानून की कमी है जो अंग्रेजो द्वारा गुलाम भारत कइ लिए बनाये गए थे जिसकी अवधारणा में ही एक तत्व है कि एक भी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए फिर चाहे कितने ही गुनहगार छूट जाये , यह अवधारणा यूंही नहीं थी अंग्रेज इन कानूनों की आड़ में किसी को सजा नहीं देना चाहते थे केवल जएल में निरुद्ध करके उस व्यक्ति की गति विधियों को सिमित करने का सडयंत्र करते थे क्योंकि जिनको सजा देनी होती थी उनका ट्रायल भी शीघ्र हो जाता था जैसे भगत सिंह और उनके साथी ? इस लिए अगर सरकार उचित संख्या में अदालतों का विस्तार नहीं करती और पुलिस कानूनों का सुधार नहीं करती तो जन आक्रोस को संभालना मुश्किल हो जायेगा जब आक्रोषित जनता इन कानून की किताबों को जलाने के लिए मजबूर हो जायेगी ?

एस.पी.सिंह,मेरठ

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