प्रशान्त भूषण में वे सब विशेषताएं हैं जो बहुत कम लोगों में मिलती हैं। वे शिक्षित हैं, बुद्धिजीवी हैं, आयु और अनुभव से परिपक्व हैं तथा अर्थ-सम्पन्न हैं किंतु उन्होंने योगी आदित्यनाथ की सरकार द्वारा यूपी में चलाये जा रहे एण्टी-रोमियो अभियान का विरोध करते हुए भगवान श्रीकृष्ण के लिये जो बचकानी बात कही, उसके लिये प्रशांत भूषण की जितनी निंदा और भर्त्सना की जाये कम है। मेरी दृष्टि में आजाद भारत में भगवान श्रीकृष्ण पर यह पहला हमला है, उम्मीद की जानी चाहिये कि यही अंतिम भी होगा।
प्रशान्त भूषण ने प्रलाप किया है कि भगवान श्रीकृष्ण बहुत सी लड़कियों को छेड़ते थे जबकि रोमियो ने केवल एक लड़की से प्रेम किया था। इसलिये योगी को एण्टी-रोमियो-स्क्वायड की जगह एण्टी-कृष्ण-स्क्वायड बनाना चाहिये था। यदि कोई सामान्य मेधा का व्यक्ति यह बात कहता तो उसे हँस कर टाला जा सकता था क्योंकि हिन्दू धर्म में बहुत कुछ सहने की शक्ति है, वह अज्ञानियों की अशिष्टता को सह लेता है किंतु बुद्धिजीवी होने का दंभ पालने वाले लोग ऐसी अशोभनीय बातें कहेंगे तो उनकी भर्त्सना करना अनिवार्य हो जायेगा, अन्यथा हिन्दू धर्म की सहनशीलता और कायरता का अर्थ एक ही हो जायेगा।
प्रशांत भूषण ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र को कितना पढ़ा, समझा और जाना है, शायद बिल्कुल नहीं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को वे लड़कियां छेड़ना कह रहे हैं! भगवान ने बाल्यकाल की लीलाएं गोकुल और वृंदावन में कीं जहां उन्होंने कई असुर मारे और गोप-गोपियों के साथ क्रीड़ाएं करते हुए सम्पूर्ण सृष्टि को प्रेम की गहनता और आनंद का अनुभव कराया। वहीं उन्होंने गौओं की सेवा की आवश्यकता को प्रतिपादित किया और स्वयं गौ-चारण करके भारतीय संस्कृति को ऐसी अनुपम देन दी जो आज भी हमारी गौरवमयी थाती है। हजारों हिन्दुओं ने गायों की रक्षा के लिये अपने प्राण न्यौछावर किये हैं।
वृंदावन में ही भगवान श्रीकृष्ण ने जगत्जननी, मां लक्ष्मी की अवतार राधारानी के साथ लीलाएं कीं। क्या प्रशांत भूषण इस बात को समझ सकते हैं कि स्वयं श्रीकृष्ण ही राधा हैं। राधा नामक कोई पृथक् अस्तित्व है ही नहीं। श्रीकृष्ण ही राधा का रूप धरकर भक्त के हृदय की विकलता, उसके उल्लास और आनंद का अनुभव करते हैं।
क्या प्रशांत भूषण इस बात को समझ सकते हैं कि विष्णु कभी लक्ष्मी का स्पर्श नहीं करते। हर क्षण वेदों के उच्चारण में लीन ब्रह्माजी की पुत्री सरस्वती हैं, कामदेव को भस्म करने वाले भगवान भोलेनाथ और शैलपुत्री के पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं, वहीं भगवान विष्णु और लक्ष्मी का न कोई दाम्पत्य जीवन है और न संतान है। जब विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया तो सीताजी ने अपनी मानसिक शक्ति से लव और कुश को जन्म दिया। जब भगवान, श्रीकृष्ण के अवतार में आये तो उन्होंने राधाजी से विवाह नहीं किया। रुक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बाली तो उनकी लौकिक लीलाओं का हिस्सा हैं जो द्वारिकाधीश की रानियां हैं।
किशोरावस्था में पैर रखते ही भगवान को कंस का वध करने के लिये मथुरा जाना पड़ा। मथुरा का शाब्दिक अर्थ है- देहासक्ति से विक्षुब्ध मन! कंस को वध करके उन्होंने सम्पूर्ण ब्रज मण्डल को सुखी बनाया और वे मथुरा के राजा हो गये। इसके बाद उन्होंने कभी गोकुल या वृंदावन में पैर नहीं रखा।
भगवान से देहासक्ति से विक्षुब्द मथुरा में निवास किया। तब क्या अपनी किशोरावस्था अथवा युवावस्था में लड़कियों को छेड़ने के लिये भगवान अपने राजमहलों से निकलकर मथुरा की गलियों में घूमते रहे होंगे! मथुरा से वे अपनी प्रजा को जरासंध के आक्रमणों से बचाने के लिये द्वारिका ले गये। द्वारिका का राजा रहते हुए उन्होंने जरासंध द्वारा भेजे गये भयानक योद्धा कालयवन का मुचुकुंद ऋषि से वध करवाया। उसके बाद उन्होंने पाण्डु-पुत्र भीम और अर्जुन के साथ मगध पहुंचकर आततायी राजा जरासंध का वध करवाया।
भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक एक अत्याचारी राजा का वध किया। उसके रनिवास में सोलह हजार एक सौ महिलाएं, गुलामों की तरह नारकीय जीवन व्यतीत करती थीं। भगवान ने उन समस्त स्त्रियों को अभयदान दिया तथा उनकी ही प्रार्थना पर भगवान ने उन्हें अपनी पत्नी कहना स्वीकार किया। अब श्रीकृष्ण की रानियां कहलाने वाली ये सोलह हजार एक सौ शोषित, पीडि़त एवं बेसहारा स्त्रियां हर तरह से सुरक्षित थीं। कोई उनकी तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकता था।
वे श्रीकृष्ण ही थे जिन्होंने भारत भूमि पर तिलचट्टों की तरह फैल गये बुरे राजाओं के सामूहिक विनाश की रूपरेखा तैयार की जिसकी परिणति महाभारत में हुई। अग्रसेन जैसे कुछ अच्छे राजाओं को इस युद्ध से दूर रखा गया और युधिष्ठिर को भारत का सम्राट बनाया गया। भारत के समस्त बुरे राजा, श्रीकृष्ण द्वारा मचाई गई विनाश लीला में तिनकों की तरह जल कर नष्ट हो गये।
वे श्रीकृष्ण ही थे जिन्होंने युद्ध के मैदान में क्षत्रिय राजकुमार अर्जुन को श्रीमद्भगवत् गीता का उपदेश दिया। एक ऐसा उपदेश जिसे ईश्वर की कृपा से युक्त मेधा वाला व्यक्ति ही समझ पाता है। श्रीमद्भागवत् हिन्दू मेधा की पराकाष्ठा है। हिन्दू इसके नाम पर प्राण न्यौछावर करते हैं। इसका नाम लेने के बाद मिथ्या सम्भाषण नहीं कहते, चाहे प्राण ही क्यों न चले जायें!
प्रशांत भूषण ने जो कुछ कहा है वह ठीक वैसा ही है जैसा कुछ विकृत मानसिकता के लोगों ने दुर्गा माता के सम्बन्ध में अनर्गल प्रलाप किया था। ईश्वरीय कृपा से विहीन व्यक्ति ही ऐसा प्रलाप कर सकता है जैसा कि प्रशांत भूषण ने किया है। क्या विश्व की किसी भी तामसिक शक्ति में ऐसा साहस है कि वह एण्टी-कृष्ण-स्क्वायड बना सके! फिर भी यदि किसी के मस्तिष्क में कीड़े कुलबुलाते हैं तो प्रयास करके देखे, कंस, जरासंध, नरकासुर और दुर्योधन की तरह स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे। यह सनातन-पुरातन भारतीय संस्कृति तो इसी तरह काल के प्रवाह के साथ चिरंतन बनी रहेगी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता,
63, सरदार क्लब योजना,
वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर।
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