इन यात्राओं पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती अपितु गर्व ही होना चाहिये कि उनके देश का प्रधानमंत्री इतने देशों में घूमकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर नई पहचान और प्रतिष्ठा स्थापित कर रहा है। वे भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं जो इजराइल की यात्रा पर गये। भारत की बहुसंख्यक जनता इजराइल के लोगों को अपना स्वाभाविक मित्र मानती आई है।
समस्या इस बात पर उत्पन्न होती है कि क्या इन यात्राओं से भारत की किसी विदेश नीति के लक्ष्य दिखाई देते हैं! वे मंगोलिया जाते हैं और एक बिलियन अमरीकी डॉलर की वित्तीय ऋण सहायता की घोषणा कर आते हैं। भारत की गरीब जनता करों के बोझ से दबी जा रही है और हम मंगोलिया की जनता को पनपाने जा रहे हैं। क्या हम यह सोचते हैं कि मंगोलिया चीन को ऊपर से दबायेगा और भारत नीचे से! पहली बात तो सोचते ही नहीं, और यदि सोचते हैं तो गलत सोचते हैं। चीन ही मंगोलिया को दबाकर रखेगा जैसा कि अब तक होता आया है।
समस्या इस बात से उत्पन्न होती है कि वे बिना भारत की जनता को सूचित किये हुए पाकिस्तान जाते हैं और नवाज शरीफ के घर खाना खाकर और उनकी माताजी को उपहार देकर आ जाते हैं और उसके बाद से पाकिस्तानी सेना एवं आतंकवादियों द्वारा भारतीय सेना को मारने का अंतहीन सिलसिला जोर पकड़ लेता है।
समस्या इस बात से उत्पन्न होती है कि जहां भारतीय नागरिकों पर सर्विस टैक्स, रेल किराये तथा अन्य सरकारी सेवाओं के मूल्यों में बढ़ोतरी की जा रही है वहीं बर्मा और अफ्रीकी देशों को भारतीय सहायता बढ़ाई जा रही है। उदाहरण के लिये भारत वर्ष 2013-14 में म्यानमार को 165 करोड़ की आर्थिक सहायता देता था जबकि वर्ष 2016-17 में यह बढ़ाकर 400 करोड़ कर दी गई है। अफ्रीकी देशों में भारत वर्ष 2015 से पहले 251.92 करोड़ की सहायता देता था जिसे वर्ष 2015 में इण्डो-अफ्रीकी समिट के बाद बढ़ाकर 290 करोड़ कर दिया गया है। ये तो केवल कुछ ही उदाहरण हैं, बांगलादेश, अफगानिस्तान तथा अन्य देशों को दी गई इस तरह की अयाचित, अनपेक्षित सहायताओं की सूची बहुत लम्बी है।
तुर्की के राष्ट्रपति रज्जब तैयब इर्दोगान की भारत यात्रा को देखकर तो आम भारतीय के मन की परेशानी और अधिक बढ़ जाती है। इर्दोगान न केवल अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपितु अपने ही देश में विवादित व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं। उनके ऊपर अपने देश में ही चुनावों में घोटाला करके राष्ट्रपति बनने के आरोप हैं।
एक ओर तो भारत अमरीका से अपने सम्बन्धों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है ताकि पाकिस्तान को अमरीका से दूर किया जा सके और चीन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जा सके किंतु दूसरी तरफ इर्दोगान जैसे नेता को अपने देश में बुला रहा है जिसके अमरीका से सम्बन्ध बहुत खराब हैं। समूचा यूरोप इर्दोगान को संदेह की दृष्टि से देखता है।
इर्दोगान ने तुर्की से भारत के लिये रवाना होने से पहले भारत को, काश्मीर समस्या के समाधान के लिए बहुपक्षीय वार्ता का सुझाव दिया। भारत पहुंचने के बाद इर्दोगान ने अपने वक्तव्य को पुनः दोहराया तथा कहा कि ‘‘हमें (काश्मीर में) और लोगों को हताहत नहीं होने देना चाहिए। बहुपक्षीय वार्ता करके (जिसमें हम शामिल हो सकें), हम इस मुद्दे का एक बार में हमेशा के लिए समाधान करने की कोशिश कर सकते हैं।’’
ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान काश्मीर समस्या के समाधान के लिये शुरु से ही बहुपक्षीय वार्ता की मांग करता रहा है और भारत आरम्भ से ही इस नीति पर चल रहा है कि चूंकि पूरा काश्मीर भारत का है इसलिये बहुपक्षीय वार्ता संभव नहीं है। भारत और पाकिस्तान ही इस समस्या का समाधान करेंगे। समाधान भी केवल एक ही है कि पूरा काश्मीर हमें सौंपा जाये।
तुर्की के राष्ट्रपति ने अपनी भारत यात्रा में पाकिस्तान के पक्ष को मजबूत किया है। इससे अमरीका और चीन को भी भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का अवसर मिला है और अब वे स्वयं को रैफरी की भूमिका में प्रस्तुत कर सकते हैं। यह भारत के लिये बहुत ही खराब बात होगी। चीन इन दिनों बहुत बेचैन है कि काश्मीर समस्या का अंत हो ताकि वह निश्चिंत होकर अपनी सड़कें, माल और सेनाएं चीन से लेकर ग्वादर पोर्ट तक पहुंचा सके।
तुर्की के राष्ट्रपति ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत की टेबल पर जाने से पहले एक और विवादित वक्तव्य दिया जो पाकिस्तान के पक्ष में है तथा भारत को परेशान करने वाला है। उन्होंने कहा कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी सदस्यता दी जानी चाहिये तथा अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा कि भारत को इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
स्पष्ट है कि तुर्की के राष्ट्रपति पाकिस्तान के दूत बनकर भारत आये थे। क्या ऐसे नेता को जो हमारे देश में आकर हमारे शत्रु का पक्ष पुष्ट करे, बुलाया जाना उचित था! यह भारत की कूटनतिक विफलता नहीं तो और क्या है?
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
स्वतंत्र पत्रकार
