-उच्च शिक्षित चपरासी, कम पढ़े-लिखे कुर्सी पर
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
*👉”रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलयुग आएगा, हंस चुगेगा दाना, कौआ मोती खाएगा।”* यही हो रहा है। बारहवीं पास बाबू बन जाते हैं और ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, एम.फिल., पीएचडी या तो चपरासी बने हुए हैं या प्राइवेट स्कूल-कॉलेज या किसी दुकान में काम कर रहे होते हैं। इसे हमारे लोकतंत्र की विफलता कहें या शासन तंत्र या फिर हमारी चयन प्रणाली की कमजोरी। हकीकत यही है कि उच्च से उच्च शिक्षा की डिग्रियां महज कागज का टुकड़ा बनकर रह गई हैं। *क्या फायदा है ज्यादा पढ़ने-लिखने से।* बी.एड. एम.एड., पीएच.डी, एम. फिल., नेट, सेट, डी. लिट्. करके भी हमारे युवा-नौजवान कौनसा तीर मार पा रहे हैं। बेचारे हाथों में डिग्रियों का पुलिंदा थामे दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं। कई-कई डिग्रियां होने के बाद भी नौकरी के लिए परीक्षाएं देनी पड़ती हैं, तो फिर यही सवाल उठता है कि आखिर इन डिग्रियों का क्या महत्व है। क्यों नहीं इन डिग्रियों को ही चयन प्रक्रिया का पैमाना या मापदंड बनाया जा सकता है। परीक्षा-दर-परीक्षा का सिलसिला आखिर कब तक झेलेंगे या फिर परीक्षा देते ही रहेंगे। कोई तो ऐसी शिक्षा प्रणाली बनाई जाए, जिसे पाते ही युवा हाथों को काम मिल जाए। युवाओं का भविष्य कहीं तो निश्चित हो। आखिर कब तक युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ होता रहेगा। *अच्छी शिक्षा पाने के बाद भी अंधकार के बीच युवा कब तक अपने भविष्य का उजाला तलाशते रहेंगे।* यदि कोई भी सरकार रोजगार की गारंटी नहीं दे सकती है, तो फिर प्री-परीक्षाएं कराकर बी.एड., एम.एड., नेट, सेट, पीएच.डी आदि कराना बंद क्यों नहीं कर देती है। भर्ती और परीक्षा एजेंसियों के दफ्तरों पर हमेशा के लिए ताले क्यों नहीं लटका देती है। परीक्षा फीस के नाम पर लूट बंद क्यों नहीं की जाती है। आखिर कब तक युवा बेरोजगार ठगा जाता रहेगा। भर्ती परीक्षाओं का बिगड़ैल रूप यह भी है कि इनमें अनेक योग्यताधारी तो बेचारे मुंह ताकते रह जाते हैं और अयोग्य जोड़-तोड़ कर या किस्मत का साथ पाकर नौकरी लग जाते हैं।