रटे रटाये फर्जी जुमले

सत्तापक्ष के लिए सदैव अच्छा और विपक्ष की नज़र में सदैव बुरा
*बजट*
अखबारों में छापनी बन्द कर देनी चाहिए प्रतिक्रिया

*-अमित टंडन-*
मेरा मानना यह है कि अब अखबारों को बजट से अगले दिन छापने वाले बजट प्रतिक्रया वाले पेज को बंद कर देना चाहिए। अर्थात बजट प्रतिक्रिया नहीं छापी जानी चाहिए। औचित्य क्या है?? बेवजह पेज काले करने का तुक क्या है?
वही घिसेपिटे डायलॉग होते हैं। सत्ता पक्ष के नेता-कार्यकर्ता कहते हैं कि जन हितैषी है, आम जन के लिए वरदान है, गरीबों को राहत देने वाला है…आदि आदि।
उधर विपक्ष वालों से पूछो तो वही जुमले कि छलावा है, एक हाथ से दिया दूसरे से छीन लिया, गरीबों के साथ धोखा…ब्ला ब्ला ब्ला।
मतलब पक्ष को बुरा कुछ नहीं दिखता और विपक्ष को अच्छा दिखाई नहीं देता।
एक किस्सा याद आया—-
अखबार के दफ्तर में बैठा था। रोज़ की तरह रूटीन खबरें एडिट कर रहा था। पूरी डेस्क काम में लगी थी। बजट का दिन था। बजट राज्य की तत्कालीन #कॉंग्रेस #सरकार का था। ढर्रागत परंपरानुसार संपादक महोदय की तरफ से निर्देश आया कि प्रतिक्रियाएं ले लो। हमें एक लिस्ट दी गई कि शहर के इन इन छोटे बड़े नेताओं व कार्यकर्ताओं को फोन करके राय जानो। फोन लगाने शुरू किए। बड़े दिग्गज तो tv के आगे अलर्ट थे, तो फोन जाते ही वही सत्ता और विपक्ष वाले सुर सबने आलाप दिए।
एक फोन लगा एक कार्यकर्ता को, उनसे कहा कि बजट पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? साहब एकदम जोश में बोले “भाजपा सरकार जन विरोधी है, आम आदमी की कमर तोड़ देगा ये बजट, भाजपा ने गरीबों के हित में इस बजट में कोई प्रावधान नहीं किये…. वो यह राग गा ही रहे थे कि हमने बीच मे टोका कि भाई यह तो स्टेट का कॉंग्रेस सरकार का बजट है, इसमें भाजपा कहाँ से बीच में आ गई, क्योंकि भाजपा तो केंद्र में सत्तासीन है और यह केंद्र का बजट थोड़े ही है।
उन्हें लगा झटका, एकदम पैंतरा बदल कर वो महोदय खींसें निपोरते हुए बोले -“ओह्ह अच्छा अच्छा। भाई ऐसा है कि यह बजट बहुत ही बढ़िया है। इस बजट से गरीब का भला होगा, आम आदमी को राहत मिलेगी, महिलाओं को लाभ होगा, सरकारी कर्मचारी राहत पाएंगे…आदि आदि।
हमने कहा भाई अभी तो आप कह रहे थे जन विरोधी है और गरीब की कमर तोड़ देगा!!
बस एक हल्की सी हंसी कान में हमारे पड़ी और टाटा बाय बाय करके हमने फोन काट दिया।
हालांकि अगले दिन हर बजट की तरह उस बजट की भी रस्मी प्रतिक्रिया हमने अपने अखबार में छापी थी, और आज तक छप रही हैं। मगर हर बार मलाल होता कि ये फर्जी लफ्फाजी क्यों छाप रहे हैं?
मजबूरी है साहब, नौकरी करनी है, घर चलाना है। इसलिए जनता से क्षमाप्रार्थी हैं कि हम यह फर्जी प्रतिक्रिया छाप रहे हैं, मगर गुजारिश यह है कि आप इन्हें सीरियसली मत लेना, जहाँ तक हो सके उस पेज को पढ़ने में अपना वक़्त बर्बाद ही न करना, यही सबसे ठीक रहेगा।

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