क्या कलंदर व झूलेलाल एक ही हैं?

tejwani girdhar

जिस गीत दमा दम मस्त कलंदर को गा और सुन कर सिंधी ही नहीं, अन्य समुदाय के लोग भी झूम उठते है, उस पर यह सवाल बना हुआ है कि क्या कलंदर व सिंधियों के आराध्य देवता झूलेलाल एक ही हैं? पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेश्मा व बांग्लादेश की रूना लैला की जुबान से थिरक कर लोकप्रिय हुआ यह गीत किसकी महिमा या स्मृति में बना हुआ है, इसको लेकर विवाद है।
यहां रूना लैला की ओर से गाए गए इस गीत का मुखडा साभार व माजरत के साथ प्रस्तुत है, जिसका मकसद है कि आपको ठीक से ख्याल हो जाए कि वह गीत कौन सा है।
यह सर्वविदित है कि आम तौर सिंधी समुदाय के लोग अपने विभिन्न धार्मिक व सामाजिक समारोहों में इसे अपने इष्ट देश झूलेलाल की प्रार्थना के रूप में गाते हैं, लेकिन भारतीय सिंधू सभा ने खोज-खबर कर दावा किया है कि यह गीत असल में हजरत कलंदर लाल शाहबाज की तारीफ में बना हुआ है, जिसका झूलेलाल से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा एक पर्चा छाप कर इसका खुलासा कर चुकी है।
इस बारे में सिंधी समाज महासमिति अजमेर के अध्यक्ष श्री कंवल प्रकाश किशनानी ने जो जानकारी दी वह इस प्रकार है

पर्चे के अनुसार आम धारणा है कि यह अमरलाल, उडेरालाल या झूलेलाल अवतार की प्रशंसा या प्रार्थना के लिए यह गीत बना है। उल्लेखनीय बात है कि पूरे गीत में झूलेलाल से संदर्भित प्रसंगों का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि आम तौर पर किसी भी देवी-देवता की स्तुतियों, चालीसाओं व प्रार्थनाओं में हुआ करता है। सिर्फ झूलेलालण शब्द ही भ्रम पैदा करता है कि यह झूलेलाल पर बना हुआ है। असल में यह तराना पाकिस्तान स्थित सेहवण कस्बे के हजरत कलंदर लाल शाहबाज की करामात बताने के लिए बना है।
पर्चे में बताया गया है कि काफी कोशिशों के बाद भी कलंदर शाहबाज की जीवनी के बारे में कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता। पाकिस्तान में छपी कुछ किताबों में कुछ जानकारियां मिली हैं। उनके अनुसार कलंदर लाल शाहबाज का असली नाम सैयद उस्मान मरुदी था। उनका निवास स्थान अफगानिस्तान के मरुद में था। उनका जन्म 573 हिजरी यानि 1175 ईस्वी में हुआ। उनका बचपन मरुद में ही बीता। युवा अवस्था में वे हिंदुस्तान चले आए। सबसे पहले उन्होंने मंसूर की खिदमत की। उसके बाद बहाउवलदीन जकरिया मुल्तानी के पास गए। इसके बाद हिजरी 644 यानि 1246 ईस्वी में सेवहण पहुंचे। हिजरी 650 यानि 1252 ईस्वी में उनका इंतकाल हो गया। इस हिसाब से वे कुल छह साल तक सिंध में रहे।
कुछ किताबों के अनुसार आतताइयों के हमलों से तंग आ कर मुजाहिदीन की एक जमात तैयार हुई, जो तबलीगी इस्लाम का फर्ज अदा करती थी। उसमें कलंदरों का जिक्र आता था। आतताइयों में से विशेष रूप से चंगेज खान, हलाकु, तले और अन्य इस्लामी सुल्तानों पर चढ़ाई कर तबाही मचाई थी। इसमें मरिवि शहर का जिक्र भी है, जो शाहबाज कलंदर का शहर है। कलंदर शाह हमलों के कारण वहां से निकल कर हिंदुस्तान आए। वे मुल्तान से होते हुए 662 हिजरी में सेवहण आए और 673 में उनका वफात हुआ। यानि वे सेवहण में 11 साल से ज्यादा नहीं रहे। इस प्रकार उनके सेहवण में रहने की अवधि और वफात को लेकर मत भिन्नता है। पर्चे के अनुसार सेवहण शहर पुराना है। कई संस्कृतियों का संगम रहा। वहीं से सेवहाणी कल्चर निकल कर आया, जिसकी पहचान बेफिक्रों का कल्चर के रूप में थी। यह शहर धर्म परिवर्तन का भी खास मरकज रहा। इसी सिलसिले में बताया जाता है कि वहां एक सबसे बड़े शेख हुए उस्मान मरुंदी थे, जिन्हें लाल शाहबाज कलंदर के नाम से भी याद किया जाता है।
पर्चे में बताया गया है कि शाह कलंदर का आस्ताना सेवहण में जिस जगह है, वहां पहले शिव मंदिर था। वहां पर हर वक्त अलाव जलता रहता था, जिसे मुसलमान अली साईं का मच कहते थे। यह शहर जब सेवहण में शाह कलंदर का वफात हुआ तो हिंदुओं ने उनको अपने मुख्य मंदिर में दफन करने की इजाजत दी। बाद में वहां के पुजारी भी उनके मलंग हो गए।
अलबत्ता परचे में इसे जरूर स्वीकार किया गया है कि दमा दम मस्त कलंदर अकीदत से गाने से मुरादें पूरी होती हैं। आम धारणा है कि सात वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरआन को जुबानी याद कर लिया था। यह भी पक्का है कि उनको अरबी व फारसी के साथ उर्दू जीनत जुबान भी बोलते थे। पूरी उम्र उन्होंने शादी नहीं की। उनके मन को जर और जमीन भी मैला नहीं कर पाए। अन्य दरवेश तो बादशाहों के नजराने कबूल कर लेते थे, मगर शाह कलंदर उस ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे।
पर्चे में यह स्पष्ट नहीं है कि दमा दम मस्त कलंदर गीत में झूलेलालण शब्द कैसे शामिल हो गया, जिसकी वजह से सिंधी समुदाय के लोग इसे श्रद्धा के साथ गाते हैं। बहरहाल यह इतिहासविदों की खोज का विषय है कि शाहबाज कलंदर को झूलेलाल क्यों कहा गया है।
दूसरी ओर विकीपीडिया में बताया गया है कि सूफी संत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह 13 वीं सदी की है। ये दरगाह पाकिस्तानी प्रांत सिंध के शहर सेहवन शरीफ में स्थित है।

 

 

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