विचारधारा के अभाव में अन्ना का पतन हो गया

anna hajare-अमूल्य गांगुली- अन्ना हजारे की सक्रियता का बुखार उतर गया है। इसमें टिकने की शक्ति थी ही नहीं। इसका पता तो उसी समय लग गया था, जब आंदोलन का स्थान दिल्ली से बदलकर मुंबई कर दिया गया था। यह दिसंबर 2011 की घटना थी। उस समय अन्ना के आंदोलन में उतने लोग नहीं उमड़ रहे थे, जितने उसी साल अगस्त और मई के आंदोलन में दिखाई पड़े थे। मुंबई के बांद्रा कुर्ला परिसर मैदान में अन्ना का वह आंदोलन शुरू हुआ था और उसका एक बड़ा हिस्सा खाली दिखाई पड़ रहा था।

उसके साथ साथ उस आंदोलन को मुंबई उच्च न्यायालय के उस टिप्पणी से भी झटका लगा था कि एक व्यक्ति का सत्याग्रह दूसरे व्यक्ति के लिए परेषानी का सबब हो सकता है। पर सबसे ज्यादा नुकसान उनके द्वारा व्यक्त की गई उस राय से हुई जिसमें उन्होंने कहा कि दिल्ली को छोड़कर मुंबई को इसलिए आंदोलन का अखाड़ा बनाया गया, क्योंकि उस समय दिल्ली में बहुत ठंढक पड़ती है। यदि किसी मसले पर चल रहा आंदोलन अपनी सफलता के लिए अच्छे मौसम पर निर्भर हो जाय, तो फिर आप अंदाज लगा सकते हैं कि उस आंदोलन का भविष्य कैसा रहेगा।

और हुआ वही। पिछली बार अन्न का नाम उस समय सुना गया, जब वे दूसरे दौर की अपनी जनतंत्र यात्रा पर थे। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि यात्रा के दोनों दौरों में से किसी ने भी दिल्ली को गर्म नहीं किया। सच तो यह है कि अधिकांश लोगों को पता भी नहीं चला कि यह जनतंत्र यात्राएं कहां और कब शुरू हुईं और कहां व कब समाप्त हो गईं। टीवी चैनल जिन्हें लग रहा था कि अन्ना देश की भ्रष्ट व्यवस्था को बदल देंगे, अब उनकी जनतंत्र यात्राओं में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे।

आंदोलन क्यों विफल हुआ, इसे समझना कठिन नहीं है। इस आंदोलन की शुरुआत इसलिए हुई, क्योंकि लोग भ्रष्टाचार से ऊब चुके थे और उससे निजात चाहते थे। उनके इस असंतोष का लाभ अन्ना को मिला। लेकिन उनके पास उतनी बौध्दिक क्षमता नहीं थी कि जनअसंतोष से उपजे इस आंदोलन को वे आगे तक ले जाते। आंदोलन के शुरुआती दिनों मे उनकी ग्रामीण सादगी लोगों को लुभा रही थी और लोग उनमें गांधीजी को देख रहे थे। लेकिन उनकी वही ग्रामीण सादगी आंदोलन के लिए समस्या बन गई, क्योंकि उसके कारण वे आंदोलन को संगठनात्मक और वैचारिक रूप नहीं दे सके।

वैसा किया जाना अन्ना के वश की बात थी ही नहीं, क्योंकि उसके लिए जिस बौध्दिक क्षमता की जरूरत पड़ती है, वह उनके पास नहीं थी। सच कहा जाय, तो अन्ना उसी समस्या का सामना कर रहे थे, जिस समस्या का सामना माओवादी भी कर रहे हैं। माओवादी भी चाहते हैं कि लोग उठें और व्यवस्था को बदल दें। लेकिन उनकी अपील का विस्तार बहुत सीमित होता है। इसका कारण यह है कि लोगो के पास सत्ता बदलने का एक हथियार पहले से ही है और वह हथियार है चुनाव। यही कारण है कि माओवादी आज डकैतों के गिरोह के रूप में बदलकर रह गए हैं और इस तरह के गिरोह हमारे देश में हमेशा और हर जगह रहे हैं।

अन्ना के मामले में तो विचारधारा का भी अभाव था। उनकी टीम में एक सदस्य थे- प्रशांत भूषण। वे माओवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाले व्यक्ति माने जाते हैं। उन्होंने तो इस संसदीय व्यवस्था को उखाड़कर उसी जगह सबको भागीदारी सुनिश्चित कराने वाले लोकतंत्र लाने की वकालत कर डाली थी। वैसे वे पेशे से वकील भी हैं।

अन्ना देश के सभी राजनीतिज्ञों को बिकाऊ बता रहे थे। वे मतदाताओं को भी बिकाऊ बता रहे थे। वे और उनके लोग इस बात को बार बार दुहरा रहे थे। वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ उनका अविश्वास साफ साफ दिखाई पड़ रहा था। वे गांधाीवादी थे, लेकिन यह बात सामने आई कि वे शराब पीने वाले लोगों को अपने गांव रेलिगन सिध्दाी में पेड़ से बांधाकर पीटा करते थे। पिटाई का यह गांधाीवादी तरीका लोगों को कैसे पसंद आ सकता था?

राजनीतिज्ञों को थप्पड़ मारने की भी उन्होंने पैरवी कर डाली। जब शरद पवार को दिल्ली में किसी ने एक थप्पड़ मार दी, तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि क्या एक ही थप्पड़ मारा? राजनीतिज्ञों से उनकी घृणा भी उस समय संदेह के घेरे में आ गई जब उन्होने भाजपा के अरुण जेटली और सीपीएम की बृंदा करात के साथ एक मंच पर भाषणबाजी की।

यदि कहा जाय कि अन्ना अराजकतावादी हैं, तो यह गलत नहीं होगा। इसका कारण यह है कि वह वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ तो बोलते हैं और इसे समाप्त करना भी चाहते हैं, लेकिन इसकी जगह कौन सी व्यवस्था हो, इसके बारे में उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है। इसलिए यह आष्चर्य का विशय है कि अमेरिका की एक पत्रिका ने उन्हें 2011 के सौ विचारकों में शुमार किया। विचारधारा के अभाव में उनका सत्याग्रह भी खुराफाती लगने लगा और इसके कारण उसका पतन हो गया। http://www.kharinews.com

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