बच्चों को जीवन मूल्यों से जोड़ने की जरूरत

बाल साहित्य पर राष्ट्रीय सेमिनार शुरू
अजमेर / किसी भी सभ्यता की नींव हमारे जीवन मूल्य ही हैं। आज बच्चों को जीवन मूल्यों से जोड़ने की जरूरत है और इस दायित्व का निर्वहन बाल साहित्यकारों को गंभीरता के साथ करना है। प्रत्येक मनुष्य का अपने प्रति, समाज, देश और प्रकृति के प्रति नैसर्गिक दायित्व होता है। वर्तमान अतिआधुनिकता के युग में बच्चों में इस दायित्व की समझ को विकसित करने के साथ सेवा और त्याग के भारतीय आदर्शाें के माध्यम से उस कर्त्तव्य को पूरा करने हेतु सक्षम बनाने का काम बाल साहित्यकारों को करना है। बच्चों की समझ के स्तर पर उनके मनोविज्ञान के अनुकूल शब्दों, भाषा व शैली का चयन करते हुए तथा आधुनिक संसाधनों के अनुरूप आवश्यक बदलाव करते हुए भी बच्चों को भारतीय परम्परा और सनातन मूल्यों को सिखाने की प्रक्रिया को जारी रखा जाना चाहिए। इंडियन सोसायटी ऑफ ऑथर्स तथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत के संयुक्त तत्वावधान में अजमेर के सूचना केन्द्र में तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन आज 27 फरवरी को करते हुए अध्यक्षीय उद्बोधन में अपने विचार व्यक्त करते हुए एनबीटी की निदेशक डॉ रीता चौधरी ने कहा कि बच्चों को एकाकीपन की विसंगतियांें से बचाने के लिए अभिभावकों को उनके साथ समय बिताने की आदत डालनी होगी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मदस विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कैलाश सोढ़ानी ने कहा कि भारत में माँ की लोरी और दादी-नानी की कहानियों का सदैव महत्व रहा है। इनका प्रभाव बच्चे के स्वभाव व संस्कार पर आजीवन रहता है। नयी पीढ़ी को पाश्चात्य विकृतियों से दूर रखते हुए देश के गौरवपूर्ण इतिहास, संस्कृति और महापुरूषों के जीवन आदर्शाें से परिचित कराने में बाल साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
विशिष्ट अतिथि महापौर धर्मेन्द्र गहलोत ने कहा कि बाल-मन पर एक भी दुष्प्रभाव उसे जीवन भर के लिए मानसिक बीमार बना सकता है। ऐसे में साहित्यकारों को इस पर चिन्तन करना चाहिए कि बच्चों को इस प्रकार का साहित्य उपलब्ध कराया जाए जिसे पढ़कर उनका जीवन श्रेष्ठ बन सके। हमारी संस्कृति को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ढालकर नयी पीढ़ी तक पहुँचाने का काम लेखकों को करना होगा। शुरूआत में सोसायटी के अध्यक्ष डॉ लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने स्वागत भाषण में कहा सेमिनार का प्रमुख उद्देश्य यही है कि सभी भाषाओं के लेखक मिलकर यह विचार करें कि ऐसा रूचिकर बाल साहित्य सृजित हो जिससे बच्चों में पढ़ने की प्रवृति विकसित हो। विषय प्रवर्तन करते हुए मुख्य संयोजक अनिल वर्मा‘मीत‘ ने विविध सत्रों की जानकारी दी। संयोजक उमेश कुमार चौरसिया सहित स्वागताध्यक्ष सोमरत्न आर्य, डॉ प्रमिला भारती, रासबिहारी गौड़, गोविन्द भारद्वाज आदि ने अतिथियों का शॉल ओढाकर स्वागत किया। डॉ पूनम पाण्डे ने सुमधुर शारदे स्तुति प्रस्तुत की। इस अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. दिनेश मिश्र तथा संस्थापक सदस्य डॉ सुरेश उनियाल व राजन पाराशर का अभिन्नन्दन भी किया गया। संयोजक उमेश कुमार चौरसिया ने बताया कि कल रविवार को बाल साहित्य की वैश्विक सोच व भारतीय बाल साहित्य, बच्चों के विकास में बाल साहित्य की भूमिका, पत्रिकाओं में बाल साहित्य की स्थिति तथा बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास कैसे हो इन विषयों पर आधारित चार विचार सत्रों में विचार विमर्श होगा।
लोकार्पण भी हुआ- उद्घाटन समारोह में प्रसिद्ध लेखक डॉ दिविक रमेश की बाल साहित्य की तीन पुस्तकों मेरे मन की बाल कहानियाँ, बचपन की शरारत व हिन्दी बाल साहित्यःकुछ पड़ाव का लोकार्पण अतिथियों ने किया। युवा कवियित्री भावना चौहान के प्रथम काव्य संग्रह ‘मेरा अधूरा जहाँ‘ का भी विमोचन किया गया। आयोजन में मुकेश व्यास, डॉ कमला गोकलानी, डॉ नवलकिशोर भाभडा, श्याम माथुर, डॉ के के शर्मा, डॉ शमा खान सहित अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
सत्रों में हुआ गहन विचार-विमर्श-
प्रथम विचार सत्र में बाल साहित्य की वर्तमान स्थिति, चुनौतियां और भविष्य पर चर्चा हुई। प्रमुख रूप से यह विचार सामने आया कि वर्तमान समय में बच्चों के पास सूचना तकनीक की विशाल दुनिया सहज उपलब्ध है। डिजिटल पुस्तकों के इस दौर में मुद्रित पुस्तकों की ओर बच्चों का घटता रूझान ही बड़ी चुनौति है। ऐसे में लेखकों को बच्चों की बदली दुनिया के अनुरूप रोचक साहित्य सृजित करना होगा जो उन्हीं आधुनिक संचार साधनों के माध्यम से बच्चों तक पहुँच सके। सत्र की अध्यक्षता उड़िया भाषा की वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोरमा बिस्वाल महापात्र ने की तथा विशिष्ट वक्ता अशोक मैत्रेय रहे। डॉ. भावना शुक्ल, उषा महाजन, डॉ.चेतना उपाध्याय, तेलंगाना की पुली जमुना व रायपुर के इं. अमरनाथ त्यागी ने विषय पर व्याख्यान दिए। संचालन रायपुर की उर्मिला देवी ‘उर्मि‘ ने किया।
द्वितीय सत्र में भारतीय भाषाओं मंे बाल साहित्य विषय पर चर्चा हुई। सत्र में मराठी सहित अन्य भाषायी बाल साहितय की नींव में रची बसी भगवद गीता, रामायण, महाभारत, पंचतंत्र व हितोपदेश कथासार की कथाओं की महत्ता व प्रभाव पर विमर्श हुआ। कहा गया कि विविध क्षेत्रों की लोक चेतना के अनुरूप बाल साहित्य में विविधता आती है और यही भारतीय साहित्य की विशेषता भी है। किन्तु सभी भाषाओं में बाल रचनाओं में बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखने की बात को सभी ने स्वीकारा। अध्यक्षता कथाकार सुरेश उनियाल ने की तथा विशिष्ट वक्ता सुरेश चन्द्रा व एस.वी.कृष्णा ने अपने विचार व्यक्त किए। डॉ भीमपल्ली श्रीकांत, मोहम्मद ख्वाजा व डॉ विद्या केशव चिटको ने हिन्दी, मराठी व तेलुगू भाषा में सारगर्भित आलेख पत्र पढ़े। संचालन डॉ भावना शुक्ल ने किया। ……………………………………2

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तृतीय सत्र में फिल्मों में बाल विमर्श पर चर्चा हुई। यह विचार उभरकर आया कि फिल्मों में बाल मन को अधिक गंभीरता से महसूस किया गया है और प्रस्तुत किया गया है। फिल्मों की कहानी लिखने वाले कथाकार बच्चों के वातावरण, मनाभावों और उनकी समस्याओं को प्रभावी रूप से दिखाने में सफल रहे हैं। सत्र में डॉ पूनम पाण्डे ने कई फिल्मों का जिक्र करते हुए फिल्मों में बाल मनोभाव के गहरे प्रभाव को बताया। डॉ सुरेश उनियाल ने भी बाल फिल्म की कहानी का रोचक चित्रण करते हुए फिल्मों में बच्चों की संवेदनशीलता का चित्र प्रस्तुत किया। डॉ प्रमिला भारती ने ‘चन्दा मामा आ रे आवा‘, ‘धीरे से आजा री अँखियन में‘ जैसी मन को छू लेने वाली फिल्मी लोरियों को सस्वर गाकर सुनाया। डॉ शकुन्तला तिवारी ने भी ‘बच्चे मन के सच्चे‘ गीत के माध्यम से बाल मन को समझाया। सत्र की अध्यक्षता लन्दल कॉलेज ऑफ हायर एजुकेशन यूके के मानद प्रोफेसर एन.एन.मूर्ति थे तथा संचालन शोभना मित्तल ने किया।

उमेश कुमार चौरसिया
संयोजक
संपर्क-9829482601

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