अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

यह किसान चलता सदैव ऐसी डगर पर
जो उबड़-खाबड़ और होती है पथरीली
बहुत तरह की इनको परेशानियाँ आती
जलतें ही रहतें जैसे बनकर यह बाती।।

खेत में ये पसीना बहातें सर्दी गर्मी वर्षा यह सहतें
कड़ी मेहनत से अन्न उगातें जिससे हम सब जीतें
इनमें भरा रग-रग में जोश फिर भी रहतें ख़ामोश
कर्तव्य कितना भी हो जटिल रहतें सदा ये अडिग।

कब आँख लगी एवं कब ये आँख खुली
कब हो गई है शादी एवं हो गई है लाली
कब आई होली और निकली ये दिवाली
पता न चला कबसे बिकनें लगा ये पानी
आज इनको हो रही बहुत ही परेशानी।।

देश के कोनों कोनों में अनाज पैदा करतें किसान
कई तरह की बाधा आऍं मेहनत से खातें किसान
स्फूर्ति तंरग ताकत के छबीले भू का क़र्ज़ चुकातें
प्रीत मातृत्व और मानवता बख़ूबी से यह निभातें
मरतें दम तक परिश्रम कर खेत में अनाज उगातें।

इनको अपनी मेंहनत का फल पूरा मिलना चाहिए
अन्न दाता का धरा पर मान होना चाहिए ।।।।।।।।

रचनाकार – ✍️
गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
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