84 के दंगों में नामजद था अटल जी का चुनाव इंचार्ज

tanveer-तनवीर जाफरी- कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर इशारा करते हुये 2009 में उन्हें मौत का सौदागर कहा था। राजनीति में इस प्रकार की भाषा निश्चित रूप से नहीं बोली जानी चाहिए। मोदी ने इस आरोप के विरुद्ध एक कोहराम खड़ा कर दिया। आज भी यदा-कदा वे सोनिया गांधी के उस वक्तव्य को दोहराते हैं। सोनिया ने कहा भाजपा ज़हर की खेती करती है। भाजपाईयों को यह भी बहुत बुरा लगा। मोदी ने उसका तुकबंदी भरा जवाब दिया कि सबसे ज़्यादा सत्ता कांग्रेस के पास रही है इसलिये सबसे ज़्यादा ज़हर कांग्रेस पार्टी में हैं। देश के कांग्रेस सहित अधिकांश राजनैतिक संगठन भाजपा को एक कट्टर हिंदुवादी एवं सांप्रदायिकता पूर्ण राजनैतिक संगठन मानते हैं। परन्तु भाजपा के नेता हैं कि वे तो इसे स्वीकार करने का साहस ही नहीं जुटा पाते। बजाए इसके इन दक्षिणपंथी शक्तियों की यह कोशिश रहती है कि अपने ऊपर लगने वाले सांप्रदायिकता के काले धब्बों को दूसरे दलों व उनके नेताओं के मुंह पर मलने की कोशिश की जाए। और कई बार इन्हें अपनी इस कोशिश में कामयाब होते भी देखा गया है।
उदाहरण के तौर पर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में सिख विरोधी वातावरण बनते देखा गया। इंदिरा गांधी के दो सिख अंगरक्षकों द्वारा उनकी हत्या किए जाने का खामियाज़ा दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों के सिख समुदाय के बेगुनाह लोगों को भुगतना पड़ा। उससमय पूरे देश में लगभग 8 हज़ार सिख मारे गये। इनमें लगभग तीन हज़ार सिख केवल दिल्ली में अपनी जानें गंवा बैठे। सिखों के घरों,उद्योगों,दुकानों तथा गोदामों आदि को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया। गर्भवती महिलाओं को जि़ंदा जलाया गया। सैकड़ों सिख युवकों को जलती चिता में जीवित धकेल दिया गया। ऐसे जघन्य अपराधों को अंजाम देने वालों को केवल इसीलिये फांसी की सज़ा नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने ऐसा घिनौना अपराध क्यों किया बल्कि मानवता के दुश्मनों का इससे भी बड़ा अपराध यह है कि इन्होंने सिखों के दिलों में देश की शासन व्यवस्था तथा दूसरे धर्मों व संप्रदायों के प्रति नफरत व विद्वेष की भावना को जन्म दिया। जबकि हकीकत तो यह है कि सिख समुदाय के लोगों ने अपने पवित्र गुरुओं के समय से लेकर आज तक धर्म व देश की रक्षा के लिये जिस प्रकार की कुर्बानियाँ दीं उसकी दूसरी मिसाल देश के अन्य धर्मों के इतिहास में भी देखने को नहीं मिलती। परन्तु सिखों को मात्र दो सिख अंगरक्षकों की गलती का भुगतान इसलिये करना पड़ा क्योंकि उनकी पहचान भी सिखों की थी।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के मुँह से निकला यह वाक्य कि जब बड़ा दरख्त गिरता है तो धरती हिलती है। अभी तक सबसे अधिक भाजपा नेताओं द्वारा उद्धृत किया जाता है। जब-जब कांग्रेस पार्टी या कोई दूसरा राजनैतिक दल अथवा नेता 2002 के गुजरात दंगों की बात करता है तो भाजपाई फौरन 1984 के सिख विरोधी दंगों व राजीव गांधी के उक्त बयान को सामने ले आते हैं। यह कहना चाहते हैं कि 1984 में राजीव गांधी के उक्त कथन के बाद ही दिल्ली में दंगे भड़क़े तथा सिखों की हत्या के जि़म्मेदार राजीव गांधी व कांग्रेस पार्टी के ही नेतागण हैं। परन्तु अपनी पारसाई दर्शाने वाले यह सांप्रदायिकता के चतुर खिलाड़ी 1984 के दंगों में भारतीय जनता पार्टी व आरएसएस के कार्यकर्ताओं व नेताओं की भागीदारी का तो कभी जि़क्र ही नहीं करते।
भाजपा में वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी ने फरवरी 2002 में अयोध्या कांड की जांच करने वाले लिब्रहान आयोग के समक्ष यह बयान दर्ज कराया था कि अयोध्या के बाबरी विध्वंस कांड से भी बड़ा राष्ट्रीय कलंक 1984 का सिख विरोधी दंगा था। एच के एल भगत, जगदीश टाईटलर तथा सज्जन कुमार जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं के नाम इन दंगों के अगुवाकारों में शामिल हैं। भगत तो भगवान को प्यारे हो लिये परन्तु शेष बचे आरोपियों को यथाशीघ्र उनके अंजाम तक पहुँचा दिया जाना चाहिए। परन्तु अडवाणी जी को 1984 के इस राष्ट्रीय कलंक के सम्बंध में दायर की गयी दो प्रथम सूचना रिपोर्ट 315/92 तथा 446/93 का भी जि़क्र करना चाहिए। और इसमें शामिल लोगों को भी 1984 के राष्ट्रीय कलंक का हिस्सा पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए।
1984 के दंगों के सम्बंध में दिल्ली के विभिन्न थानों में 14 प्राथमिकियाँ ऐसी दर्ज हुयी थीं जिनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी के 49 नेताओं व कार्यकर्ताओं के नाम शामिल थे। इनके विरुद्ध दिल्ली की विभिन्न अदालतों में अब भी कई मामले लंबित हैं। यह सभी मामले दंगा भडक़ाने, दंगा करने, हत्या के प्रयास व डकैती के आरोपों में रजिस्टर्ड हुये हैं। एफ आई आर संख्या 446/93 तथा एफ आई आर संख्या 315/92 इन दोनों ही प्रथम सूचना रिपोर्ट में रामकुमार जैन नाम के एक ऐसे संघ नेता का नाम शामिल है जोकि 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी के संसदीय चुनाव क्षेत्र लखनऊ का इंचार्ज भी था। इसमें से एक एफआईआर 446/93 हरदयाल सिंह साहनी निवासी हरि नगर(आश्रम) द्वारा दायर की गयी थी जिसमें साहनी ने आरोप लगाया था कि 1 नवंबर 1984 को उनकी सारी धन-संपत्ति लूट ली गयी। इसमें भी रामकुमार जैन सहित 17 लोग नामज़द किये गये थे। और दक्षिण दिल्ली के श्रीनिवासपुरी थाने में इसकी रिपोर्ट दर्ज कराई गयी थी। परन्तु आज तक किसी भी भाजपाई नेता अथवा संघ के तथाकथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ के मुंह से यह कभी सुनाई नहीं दिया कि सिख विरोधी हिंसा में उनके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी व धर्मवादी’ भी शामिल थे। परन्तु राजनीति के यह माहिर खिलाड़ी इसे केवल इंदिरा गांधी की हत्या का बदला तथा हिंसा को राजीव गांधी के कथन से जोडक़र केवल कांग्रेस को ही इस हिंसा का जि़म्मेदार ठहराने की कोशिश करते हैं।
इसी प्रकार 2002 में गुजरात में हुये सांप्रदायिक दंगों में अपुष्ट सूचना के मुताबिक पाँच हज़ार मुस्लिम मारे गये। इनमें ढाई सौ से अधिक हिंदुओं के मारे जाने की भी सूचना है। इन गुजरात दंगों को ‘विकास पुरुष’ नरेंद्र मोदी व भाजपाई पारसाई न तो अपनी नाकामी मानते हें न ही इन दंगों की जि़म्मेदारी लेते हैं। बल्कि इसे वे बड़ी ही सुंदरता के साथ क्रिया की प्रतिक्रिया बताकर गोधरा साबरमती कांड का बदला कहकर उसे न्यायोचित बताने की कोशिश करते हैं। अडवाणी जी 1984 के दंगों को 1992 से बड़ा कलंक जिस आधार पर बताते हैं क्या वह बात 2002 के गुजरात पर लागू नहीं होती? महात्मा गांधी का गुजरात सांप्रदायिक आधार पर बँट चुका है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रयोगशाला गुजरात सांप्रदायिकता का अपना पहला प्रयोग सफलतापूर्वक अंजाम दे चुकी है। क्रिया की प्रतिक्रिया गुजरात में ज़रूर हुयी होगी परन्तु क्या यह सच नहीं है कि यह प्रतिक्रिया स्वयं नहीं हुयी बल्कि कराई गयी है? इसे हवा दी गयी है? मृतकों की जली हुयी लाशों को गोधरा से उनके अपने-अपने घरों पर भेजने के बजाए उन्हें नरेंद्र मोदी के निर्देश पर अहमदाबाद में लाकर रखा गया और दंगों की पूरी योजना तैयार करने के बाद उन लाशों की विश्व हिंदू परिषद के हवाले किया गया और जहाँ-जहाँ विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता जुलूस की शक्ल में उन मृतक कारसेवकों की लाशों को लेकर निकले उन-उन इलाकों में दंगों की आग भडक़ती गयी। एक योग्य, कुशल तथा स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने वाले शासक पर क्या यह शोभा देता था कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिये नफरत, सांप्रदायिकता भड़क़ाने यहाँ तक कि सांप्रदायिकता भडक़ाने के लिये विश्व हिंदू परिषद को ऐसा खूनी खेल खेलने की इज़ाज़त दे और अपने पुलिस प्रशासन व अधिकारियों को मूक दर्शक बने रहने के लिये कहे?
परन्तु इन सब के बावजूद ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ को ज़हर अपने में नहीं बल्कि दूसरों में दिखाई देता है। इसलिये एक बार फिर यह सवाल बेहद ज़रूरी है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के सांप्रदायिक दंगे हों या 2002 में 58 कारसेवकों की हत्या के बाद गुजरात में उठी सांप्रदायिकता की आग, इन दोनों ही अवसरों का बदला तो धर्म व राष्ट्रवाद के ठेकेदारों द्वारा सिखों व मुसलमानों से लिया गया। परन्तु जब देश का सबसे बड़ा और सबसे पहला ‘राजनैतिक दरख्त’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के रूप में गिरा फिर आखिर देश में किसी प्रकार की सांप्रदायिक अथवा जातिवादी हिंसा क्यों कर नहीं हुयी? गांधीजी पर सांप्रदायिकतावादियों द्वारा पहला हमला 1934 में किया गया था। और उनके जीवन में उन पर पाँच बार इन्हीं शक्तियों द्वारा हमले किये गये। आज यह ढोंगी ताकतें तकनीकी दृष्टि से स्वयं को गांधी का हत्यारा नहीं मानतीं। तो क्या नाथूराम गोडसे कम्युनिस्ट, अकाली, कांग्रेस या मुस्लिम लीग की विचारधारा से जुड़ा हुआ था? आज जिस सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनाने का नाटक रचा जा रहा है उन्हीं सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध लगा दिया था। केवल 1984 ही नहीं बल्कि पूरे देश के आज तक के सभी सांप्रदायिक दंगों का इतिहास उठाकर देखा जाए तो भले ही वे दंगे किसी के भी शासनकाल में क्यों न हुये हों परन्तु उन दंगों में सबसे अधिक नामित लोग इसी दक्षिणपंथी संगठन के ही मिलेंगे। और पारसा दिखाई देने की कोशिशें करने वाले यह लोग उन दंगाइयों को सम्मानित व पुरस्कृत करते नज़र आएंगे। माया कोडनानी और सोम संगीत जैसे विधायकों की तरह। रही-सही कसर मालेगांव ब्लास्ट तथा समझौता एक्सप्रेस के आरोपी असीमानंद द्वारा यह कहकर पूरी कर दी गयी है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत व दूसरे बड़े संघ नेताओं के कहने पर इन हादसों को अंजाम दिया गया। परन्तु इन्हें अब भी स्वयं को पारसा साबित करने के सिवा और कुछ सुझाई नहीं दे रहा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं
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