
तुम फिर से चले आये
सोई हुई श्वेताम्बरा को जगाने
जबकि कब का बंद कर लिया है
द्वार उसने अपने अंतर्मन का
रंग- मौसम, ओस, खूश्बू
सब सूख कर परत दर परत
अंकित हो गये हैं चेहरे पर
क्या अब भी तुम कविता की
उगाना चाहते हो फसलें
क्या अब भी तुम मौसम को
निचोड़ना चाहते हो
क्या अब भी तुम दिशाओं
का लेकर वंदनवार
करते हो अपनी श्वेताम्बरा के
आने का इन्तज़ार
कलकल की मधुर गूंज
क्या अब भी सुनाई पड़ती है
और चांदनी में रेत पर
श्वेताम्बरा दिखाई पड़ती है
अगर हां, तो उठो
और बढ़ते रहो आगे
क्योंकि तुम्हारी श्वेताम्बरा
अब एक दीप बन गई है
और तुम्हारे रक्तरंजित कंधों पर
प्रकाश का फैलाव भर गया है
ह्रदय के द्वार पे तुमने भी
सजा रक्खे तो होंगे
वो पल जो कभी
श्वेताम्बरा के साथ निभाय़े थे
वो सपने जो श्वेताम्बरा और तुमने
साझी आंखों से देखा था
और तुम कहते हो कि
पराजय का गीत लिखूं
कैसे……?
याद रखो पराजय
मृत्यु के साथ आती है
जब तक जीवन है
तब तक तो उम्मीदे ही
हौसलें दिलाती हैं
फिर कैसे कहते हो कि
अनसुने हो तुम, तुम्हारी वेदना
कैसे पराजय ने तुमको चुना
सुनो तुम…..
अब तुम्हें सुनना होगा
कभी हार के बाद की जीत को भी
महसूस किया है…नहीं न
तो आज उसे ही महसूस करना होगा
ये भी याद रखो कि भीड़ में भी
जुगनू चमक उठता है
एक चिराग़ भी मीलों तक
ऱोशनी भर देता है
और जिस हार को तुमने
सजाया है माथे पर चंदन की तरह
जिस आहत मन को हरित
कर रखा है भ्रमक वेदनाओं से
उसे सूखने दो और
नये बीज उत्साह के अंकुरित करो
अपनी हार को मिटा के एक परवाज भरो
चलो उठो……कुछ दूर ही सही
मगर ………..अब तुम मेरे साथ चलो………………….आशा गुप्ता ‘आशु’
….याद रखो मृत्यु पराजय के साथ आती है , जबतक जीवन है तब तक तो उम्मीदें ही होंसला दिलाती है …….जीवन की सार्थकता से साबका कराती एक सुन्दर अभिव्यक्ति , आभार