-अनिल सिंह- मुझे याद है, 1979 को लोक सभा चुनाव के बाद इन्दिरा जी ने सरकार का गठन किया था। राष्ट्रपति भवन के आशोक हाल में शपथ ग्रहण समरोह में मैं भी मौजूद था।
मंत्रिगण शपथ के बाद जब पुस्तिका पर हस्ताक्षर हेतु जा रहे थे उस समय श्री आर0के0 धवन अपनी जेब से एक स्लिप प्रत्येक मंत्री को धीरे से पकड़ा रहे थे जिसमें मंत्री को आमुख को अपना विशेष सहायक (तब मंत्री के निजी सचिव का पद नाम विशेष सहायक ही होता था) रखना बताया गया था। कुतूहलवश मैंने स्वः संजय गांधी से पूछा था कि धवन जी कैसी पर्ची मंत्रियों को दे रहे थे। तब उन्होने अवगत कराया था कि पर्ची में अधिकारी के नाम दिये गये हैं जिन्हें मंत्री को अपना विशेष सहायक नियुक्त करना है- प्रक्रिया के अन्तर्गत दिये नाम का प्रस्ताव मंत्रिगण कैबिनेट सचिवालय को भेजेंगे जिसके अनुमोदन के उपरान्त विशेष सहायक के रूप में अधिकारियों की नियुक्ति होगी।
चूंकि तब तक कांग्रेस में इन्दिरा जी एक मात्र नेता हो चुकी थीं उनकी कार्यशैली में सब मंत्रियों की कदाचित निगरानी, जो प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार भी है, का महत्व था।
उसी दशक की बात है जब श्री बसन्त साठे ने लोकतन्त्र में सीमित तानाशाही पर बहस छेड़ते हुए राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा कराते हुए देश में राष्ट्रपति प्रणाली की बात चलायी थी किन्तु चर्चा आगे बढ़ न सकी। आपरेशन ब्लू स्टार की प्रतिक्रिया स्वरूप इन्दिरा जी की हत्या कर दी गयी। युवा राजीव गांधी के नेतृत्व में बगैर कांग्रेस संसदीय दल में नेता का चुनाव किये ही राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने शपथ दिला दी थी- फिर संसदीय दल की बैठक में नेता का अनुमोदन हुआ था…!
बोफोर्स-कान्ड के बाद भारतीय लोकतंत्र 1989 से 2014 तक गठबन्धन के दौर में रहा। जहाँ नेतृत्व प्रभावशाली नियन्त्रण नहीं ले सकता था। यू0पी0ए0-2 में तो प्रधानमंत्री पद की संवैधानिक संस्था को काफी क्षति पहुँचायी गयी।
सौभाग्य से देश को बहुमत की सरकार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मिली है। पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति को सीधे जनता द्वारा चुनाव के क्रम में अपनी चुनावी सभाओं व थ्री0डी0 सम्बोधनों में जनता से कहा कि कमल का बटन दबायें आप का वह वोट सीधे मुझे यानी नरेन्द्र मोदी को मिलेगा। जनता ने अपील सुनी, यह मानकर की नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना है, हमारा मत किसको सासद निर्वाचित करेगा महत्वपूर्ण नही है, महत्वपूर्ण यह है कि मोदी जी को मेरा वोट काम आयेगा बस! राष्ट्रीय बहुमत से मोदी जी प्रधानमंत्री हैं। किन्तु जनता में यह अपील कयाम हो सके इस हेतु उनकी अपनी पार्टी, उसके प्रत्येक नेता व कार्यकर्ता ने काम किया। भाजपा की सामूहिक निर्णय लेने की नीति रही है। एन0डी0ए0 प्रथम के दौर में सरकार के सत्ता केन्द्र में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी के साथ लाल कृष्ण आडवानी का संयुक्त योगदान था। किन्तु मोदी सरकार में ऐसा नहीं है। पहले भ्रामक सोच यह थी कि कदा्चित आडवानी जी की समर्थ क्षमता के बराबर नहीं, किन्तु आंशिक रूप नं. 2 की स्थिति श्री राजनाथ सिंह की रहेगी, उसके पीछे पार्टी की कार्यशैली के साथ-2 मोदी जी और राजनाथ जी के पार्टी अध्यक्ष रहते जो तालमेल था उससे जनधारणा बनती थी। किन्तु निजी सचिव कोई मंत्री स्वविवेक से नही रख सकता इसका निर्णय करके प्रधानमंत्री कार्यालय ने संदेश दे दिया कि सत्ता का नियन्त्रण मंत्री परिषद अथवा पार्टी नियन्त्रण से इतर मात्र मोदी जी के ही हाथ में है।
यह जनता में शुभ संकेत नही दे रहा है, मंत्री परिषद के सदस्य यदि निजी सचिवों की नियुक्ति में अंकुश किये जायेंगे तो उनका अपने विभाग के सचिव व अधिकारियों पर क्या अंकुश रहेगा, यह विचारणीय है। परस्पर विश्वास का अभाव यदि प्रधानमंत्री एवं उनके मंत्रियों में है तब गुणात्मक परिणाम की अपेक्षा पर संशय बना रहेगा। लोकतंत्र में जनता का अत्यधिक प्यार व्यक्ति को अधिनायकवाद की तरफ प्रेरित/अग्रसारित न कर दे जैसा कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वः जवाहर लाल नेहरू ने अपने को ही लेकर व्यक्त किया था।
छोटी सी बात निजी सचिवों की नियुक्त का मंत्रियो के विवेकाधीन से अलग प्रधानमंत्री द्वारा प्रेषित पैनल पर नियुक्त इंन्दिरा जी और नरेन्द्र भाई मोदी में कुछ-कुछ समानता दर्शाती है। उन्हें तथा पार्टी को बचना चाहिये, यू0पी0ए0 2 के कैबिनेट सचिव जो पूर्व से सेवा विस्तार पर थे उन्हें मोदी जी ने पुनः छः माह का सेवाविस्तार दे दिया है, भारत सरकार के सभी सचिव यथावत् हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसे निर्णयों से बाहर रहेगा वह मंत्रियों के कार्यालयों पर पाबन्दी होगी, क्या यह उचित प्रतीत होता है।
यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि राजनाथ जी अब तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, उपरोक्त विषय उनके (भारत के गृहमंत्री) निजी सचिव को लेकर भी है। फिर भी पार्टी के कतिपय प्रवक्ता प्रधानमंत्री के कार्यालय निर्णय/निर्देश पर टिप्पणी देते हुए उचित ठहरा रहे हैं, जबकि वह पार्टी प्रवक्ता हैं, सरकार के प्रवक्ता नही, उन्हें इससे बचना चाहिये था। उनका व्यक्तव्य पार्टी के दृष्टिकोण का प्रतीक है जिसे शीर्ष नियन्ता-राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहमति की अभिव्यक्ति माना जा सकता है।
अनिल सिंह, लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद के सदस्य व लोक अधिकार मंच के अध्यक्ष हैं। http://www.hastakshep.com