दिल की गहराइयों में उतरने वाला चराग़े-दिल…

2 Charage_Dil-2007सम्माननीय देवी नागरानी जी की सशक्त लेखनी से निकली रचनाओं को आदतन रिव्यू के नज़रिये से पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई। जैसा कि आप जानते हैं अखबारी दुनिया से संबद्ध होने के कारण दीर्घावधि से रिव्यू के लिए कृतियां पढ़ने की आदत-सी हो गई…! किंतु इस कृति की रचनाओं-गज़लों ने दो वजहों से दिल-दिमाग़ और कलम-दवात को थाम लिया। पहली वजह इस कृति का रिव्यू करने की तो सोच भी नहीं उभरी। दूसरी वजह गज़ल-संसार से मेरी अनभिज्ञता। इन वजहों से चरागे-दिल को हाथ का काम पूरा कर पहली फुरसत में अध्ययन के लिए सहेज लिया।
बतौर एक पाठक: दिल की गहराइयों में उतरने वाला चराग़े-दिल…
जिंदगी अस्ल में तेरे ग़म का है नाम
सारी खुशियां है बेकार अगर ग़म नहीं है
नहीं होने के बीच होने को साक्षात कराने वाले सूफियाना ख्यालात जीवन को किस क़दर खुशियां देते हैं इसे वही बयां कर सकता है जिसने साफ़गोई विरासत में हासिल की हो। ऐसी शख्सियतों में अग्रणी पंक्ति में शुमार वरिष्ठ साहित्यकार देवी नागरानी की लेखनी वही बयां करती है जो साक्षात देखा-भोगा महसूस किया। कलमकार के लिए जितना ज़रूरी जैसा दिखता है वैसा लिखना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है उस अहसास को भी कलमबद्ध करना जिसे और कोई नहीं देख पाया। चरागे-दिल की तमाम गज़लों में ऐसे बयानात हैं। देखिए–

देवी नागरानी
देवी नागरानी

खुशी का भी छुपा ग़म में कभी सामान होता है
कभी ग़म में खुशी मिलने का भी इम्कान होता है।
जिंदगी में हर लम्हा बहुत कुछ कहता, सुनाता, बताता है। चेताता है, मुस्कान देता है, दर्द को आकार देता है, पीड़ा को छुपाता है। खुशियों को हमारे बीच से जाने नहीं देता और ग़मों को बिसराने से पीछे हटता है। देवी नागरानी की लेखनी हर उस लम्हे को शब्दाकार करती है, जिसे हमने अपने आस-पास, अपने अंतःतल की गहराइयों में कितनी ही बार देखा… अनदेखा कर दिया। देखिए-
नजरों से दूर था मेरा चाहत भरा नगर
फिर भी वो आस-पास था ऐसा भरम हुआ
देवी नागरानी की गजलें पढ़ते समय यक़ीनन मेरी तरह ही ज़िन्दगी के हर पल को तसव्वुर में संजोने वाले पाठक भी बरबस ही कह उठेंगे- अरे… यही ख्यालात, ऐसे ही अल्फ़ाज तो दिल-दिमाग में घुमड़ते हैं… लेकिन, कलमबद्ध देवी नागरानी जी ने किया है। उर्दू ज़ुबान में जो मिठास और तहजीब है, गज़ब का अदब है। अदबी दुनिया में गज़ल की अपनी अहमियत है। चरागे-दिल में भी गज़ल को उतना ही सम्मान हासिल है, पहली ही गजल दिल में उतर जाती है। ये पढ़िये –
साज़िश मिरे खिलाफ मेरे दोस्तों की थी
इल्जाम दुश्मनों पे मैं ‘देवी’ लगाऊं क्या।
कहते हैं गज़ल को जब तक गाया न जाए, उसमें समाया न जाए। ऐसी ही गेय-गज़लों के अनमोल हीरे-मोतियों का खज़ाना है यह संग्रह। गज़लों में जहां कोमलता बाग़ बाग़ करती है, वहीं कठोरता से विसंगतियों को उघाड़ने का साहस भी भरा पड़ा है। देवी नागरानी लिखती हैं –
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिए।
इस गज़ल-संग्रह की एक और विशेषता की ओर मेरा ध्यान तब गया जब गज़लों को पढ़ते समय शीर्षक नदारद पाए। यकबयक दिल से आवाज आई, बिना नाम की नाम वाली गज़लें। हालांकि फिर किताब के पन्ने पलटे तो फेररिस्त पर नजर ठहर गई। 118 गजलों को अपनी पहली लाइन के साथ मौजूं के तौर पर पेज नंबर के साथ सजाया हुआ देखा। सच तो यह है कि यदि इस फेहरिस्त को पेज नंबर पढ़े बिना एक के बाद एक लाइन पढ़ते जाएंगे तो किसी रचना को नए कलेवर में महसूस करेंगे। अपने अहसास को आपसे साझा करता हूं, फेहरिस्त का सफ़ा 25 खोलिए, पहला मौजूं है– मिट्टी का मेरा घर अभी पूरा बना नहीं। इस गजल को पेज 83 पर पूरा पढ़ा जा सकता है। लेकिन आप इस मौजूं के बाद पेज नंबर न पढ़कर अगला और फिर सिलसिलेवार मौजूं ही पढ़ते जाएं तो नवाचार के साथ एक रचना सामने दिखेगी। माफ़ी चाहता हूं, यह गज़ल की अनदेखी नहीं कर रहा बल्कि गज़ल की एक खूबसूरत किताब के उस सफ़े को अपने अहसास के साथ आपसे साझा कर रहा हूं, जिस सफ़े ने गज़ल के शीर्षकों को भी मेरे मन में एक रचना के रूप में अंकित कर दिया है। देखिए…

मोहन थानवी
मोहन थानवी

मिट्टी का मेरा घर अभी पूरा बना नहीं/ वैसे तो अपने बीच नहीं है कोई खुदा
गुफ्तगू हमसे वो करे जैसे/ राहत न मेरा साथ निभाए तो क्या करूं
छोड़ आसानियां गई जब से / शम्अ की लौ पे जल रहा है वो
जख्म दिल का अब भरा तो चाहिए / शहर अरमानों का जले अब तो
उसे इश्क क्या है पता नहीं / खूबसूरत दुकान है तेरी
जानता हूं, गज़ल लेखन आसान नहीं, गज़ल को समझना तो उससे भी अधिक कठिन है और मैं यह ज़ाहिर करने से कतई नहीं कतराऊंगा कि गज़ल की दुनिया मुझे अचंभित करती है। मैं इस दुनिया से अनजान हूं मगर यह दुनिया अपनी ओर खींच रही है। कुछ इस तरह –
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
कश-म-कश में हैं अभी हम, हर कदम मुश्किल में है
महzज़ देवी नागरानी के इस गज़ल संग्रह चरागे-दिल को पढ़ने से ऐसा अनुभव हुआ है तो विचार करता हूँ .. कुछ गज़ल संग्रह और पढ़ूं और अपने ख्यालात के परों को फैलाऊं। यानी चरागे-दिल की गज़लें जज़्बातों को सींचती हैं। ये गज़लें कह रही हैं, अपने बंद दिमाग़ के दरो-दरवाजों को खोलकर देखो दुनिया कितनी हसीं है –
बंद हैं खिड़कियां मकानों की क्या ज़रूरत नहीं हवाओं की।
ऐसे नायाब हीरे-जवाहरातों का खज़ाना यह गज़ल-संग्रह 2007 में प्रकाशित हुआ मगर मुझे पढ़ने का अवसर अब मिला तब भी इस सोच को बल दे गया कि रचना हमेशा ताज़गी देती है। देवी नागरानी की इस रचना का प्रकाशन भले ही कभी भी हुआ हो, उसे जब भी पढ़ा जाता है, वह गुलिस्तां के ताज़े खिले फूल-सी महकती है। कली-सी मुस्काती है। पंखुडि़यों सी अपनी कोमलता में बांध लेती है। बिलकुल ऐसे—
यूं ख्यालों में पुख्तगी आई
बीज से पेड़ बन गए जैसे
इतना ही नहीं, जीवन की सच्चाइयों से भरपूर इस चमन का हर गुल रिश्तों की गरमाहट से भरता भी है तो साथ ही साथ पुष्प-रक्षक तीखे कांटों सी सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने से भी नहीं चूकता। देखिए– –
इंसानियत को खा गई इंसान की हवस
बर्बादियों की धूप में जलते बशर गए।
सच तो यह भी बयां करना होगा कि देवी नागरानी के इस गज़ल संग्रह चरागे-दिल की एक-एक गज़ल को पढ़ते समय लगता है, वे जीवन के अपने तजुर्बों को तकसीम करने में फर्राख़दिल हैं। अपने बच्चों, कविता, दिव्या और दीपक को उन्होंने इन अहसासों का गुलदस्ता सौंपा है जिसे नाम दिया है चरागे-दिल। और… देवी नागरानी कहती हैं –
न बुझा सकेंगी इसे आंधियाँ
ये चरागे-दिल है दिया नहीं

साधुवादके साथ
मोहन थानवी,
श्रीलक्ष्मी विश्वास वाचनालय, 82A, शार्दूल कालोनी बीकानेर, 334001 संस्थापक अध्यक्ष – मोहन थानवी 9460001255 17 जुलाई 2014

संग्रह: चराग़े-दिल, शायरा: देवी नागरानी, २००७/ पृष्ठ १४४/पन्ने-144, प्रकाशक: सरला प्रकाशन, १५८६/ १ ई, नवीन शाहदरा, दिल्ली – ११००३२,

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