बर्फ

मोहन थानवी
मोहन थानवी

बीती रात 11.40 बजे
सड़क अकेली नहीँ थी
मिल रहा था कुछ कामकाजी लोगोँ
और
दो चार आवारा चौपायोँ का सँग
बर्फीली हवाओँ मेँ भी डटे रहने का हौसला
वो भी सुन पा रही थी
चँद अट्टालिकाओँ के अनजाने बँद गर्म कमरोँ मेँ
ठँडे हो रहे गोश्त मेँ दबी
चटकती
मजबूर हड्डियोँ की सीत्कार

आज सुबह 4 बजे

ओस मेँ भीगी थी या आँसुओँ से नहाई सड़क
अकेली तो फिर भी नहीँ थी
मोड़ पर दीवार के सहारे
अलाव तापते बैठे थे चौकीदार और हवलदार
दूर गूँज रहा था ‘हरजस’ *
चिथड़ोँ मेँ खुद को समेटता छोरा
चाय की दुकान के बाहर
बुहार रहा था
अँदर गर्माहट दे रही थी
कभी न बुझने वाली भट्टी

सुबह 7.30 बजे

माघी* रात बर्फ की मानिँद
जमा देने वाले मँजर
देख चुकी सड़क
उजाले से कतरा रही थी
सूरज भी उसकी सर्द आह से उत्पन्न कोहरे मेँ सिमटा
हवा भी लरज गई
लोगोँ की पदचाप
और
वाहनोँ का धुआँ बढ गया
रौँदी जाने लगी
अन्याय की गवाह सड़क
और, दुनिया जाग गई ।

हरजस – भजन
माघी रात – माघ माह की रात
***
मोहन थानवी

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