हमारी बालबाड़ी की एक ‘समीक्षा’

Baal Badi-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी- मुझे वृद्वावस्था में बिटिया का बाप कहलाने का सौभाग्य मिला। ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापित कंरू या बिटिया की मां को थैंक्स कहूं। मैं सर्वथा औपचारिक नही हूँ, और न ही फिल्मी। मेरे जीवन का दर्शन बड़ा ही सरल और सर्वग्राह्य है। इसको पढ़ने के लिए डाक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने की आवश्यकता है।
बिटिया और बेटों में क्या अन्तर होता है, इस पर मुझे कुछ भी नही कहना है। नसीब-नसीब की बात है किसी को सब कुछ ‘मयस्सर’ होता है तो कोई ‘तरसता’ है। मैं अपने अब तक के जीवन काल में किसी भी भौतिक वस्तु के लिए तरसा नहीं हूँ। तात्पर्य यह नहीं कि इन वस्तुओं की बहुतायत है, इसके बावजूद मैंने मानव निर्मित किसी भी वस्तु के प्रति लगाव नहीं रखा। उतना नहीं जितना अन्य रखकर उसकी प्राप्ति के लिए दिन-रात क्या कुछ नहीं कर रहे हैं।
बिटिया/बेटा मानव निर्मित भौतिक चीजें नहीं हैं। ये ईश्वर प्रदत्त हैं। यह सब उन्हें ही मयस्सर होते हैं जिन पर ऊपर वाले की अपार कृपा होती है। यह माना जा सकता है कि मुझ पर ईश्वर/खुदा/गॉड/वाहे गुरू…आदि नाम वाली ‘शक्ति’ की अगाध कृपा है- तभी मुझे बेटा-बेटी की प्राप्ति हुई। ये ईश्वरीय तोहफे अमूल्य हैं। मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि माया रूपी संसार में ईश्वर की समस्त लीलाओं से ओतप्रोत है मेरा अपना परिवार, जिसमें उसके विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं।
मैं अपनी बालबाड़ी का सबसे वरिष्ठ मुखिया हूँ। बाल स्वरूप ईश्वर की नटखट अदाओं से परेशान होना पड़ता है। कभी चश्में पर आक्रमण तो कभी कलम की तोड़फोड़/कागज का फाड़ा जाना। बेटे हैं तो शरारतों पर मना करने पर वह लोग मेरे पास आकर बैठ जाते हैं, अपने-अपने ढंग से तर्क देकर मुझसे हाँ भी मरवाते हैं। क्या करूँ, यदि उनकी हाँ में हाँ न मिलाऊँ तो वह लोग नाराज भी हो जाते हैं। बेटियाँ हैं- इनके बारे में क्या कहूँ। अलग ही अन्दाज में शरारतें करती हैं। तेज आवाज में मना कर दूँ तो मुँह बिचका कर आँखों से जलधार बहाने लगती हैं। यह बात दीगर है कि जब इन सब का मूड ठीक रहेगा तब कभी हाथ, पैर तो कभी सिर दबा कर अपना सेवा भाव प्रदर्शित करती हैं। जरा सी चूक हुई नहीं कि- चश्मा टूट सकता है, हाथ का मोबाइल निष्प्रयोज्य हो सकता है।
सवा वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक की आयु के इन प्राणियों की संख्या 5 है। इनकी वजह से मेरी अच्छी खासी वर्जिश (फिजियोथिरैपी) हो जाया करती है, वर्ना लेटे-लेटे मैं रोगी बन जाता हूँ। जब नन्हें-नन्हें हाथों की उँगलियाँ मेरा चश्मा लेकर खेलने लगती हैं, मुझे अचानक अपनी दयनीय स्थिति पर तरस आने लगता है, सोचता हूँ कि काश! मैं बुड्ढा न होता, दृष्टिदोष से ग्रस्त न होता, चश्मा टूटता या फिर कुछ और मुझे किसी प्रकार का गम न होता।
मैं हमारी बालबाड़ी के इन पाँच नन्हें प्राणियों को नित्य अलग-अलग नामों से बुलाता हूँ। इनके साथ मदारी का खेल खेलता हूँ। बाल स्वरूप ईश्वर मेरे साथ खिल-खिलाकर हँसते हैं। यही सोचकर आनन्दित होता हूँ। मुँह से बच्चों जैसी आवाजें निकालता हूँ और इन प्राणियों के मनोभावों के अनुरूप ही कार्य करता हूँ। भरसक प्रयास करता हूँ कि इन्हें मुझसे कोई शिकायत न हो। मैं ईश्वर के इन बाल स्वरूपों के स्वास्थ्य को लेकर काफी सतर्क रहता हूँ, इसके लिए बाड़ी की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देता हूँ। जब भीं इन्होंने मेरे सीने और शरीर के किसी अंग पर उछल-कूद मचाते हुए सू-सू या छी-छी किया तो मुझे कतई बुरा नहीं लगता है। सर्वप्रथम मैं इनके वस्त्र बदलकर स्वयं के कपड़े बदलता हूँ। इस तरह भगवान और भक्त दोनों स्वच्छ परिवेश में रहकर स्वस्थ हैं।
मैं भगवान के इन बाल स्वरूपों को देखकर आनन्दित होता हूँ। सबसे छोटा स्वरूप है, उस प्राणी का जिसकी उम्र डेढ़ वर्ष मात्र है। उसका नाम अभी निश्चित तौर पर नहीं रखा गया है, लेकिन उसकी जननी ने ‘समीक्षा’ रखा है। मैं ही नहीं उसकी पूरी बाल मण्डली उसे ‘सानू’ कहकर पुकारती है। नटखट, चंचल और बेहद अक्लमन्द है। हरेक गतिविधि को वह बड़ी बारीकी से देखती है। मैंने ईश्वर को नहीं देखा है, चित्रों चलचित्रों में देखा है उसके बालरूप को। ठीक उसी तरह के क्रिया-कलाप करने वाले हमारी बाल-बाड़ी के प्राणियों को देखकर मैं अभिभूत होता हूँ। मैं नास्तिक से आस्तिक बन गया हूँ।
एक दिन किसी सम्पादक ने मुझे फोन करके कहा कि अपना अनुभव लिखने के बजाय ऐसा कुछ लिखिए जिससे लोग ‘सबक’ ले सकें। मुझे उनकी बात अखरी, परन्तु जवाब नहीं दिया। उम्र के इस पड़ाव में जब लोग तीर्थ यात्राएँ करते हैं, मोक्ष की कामना करते हैं तब मैं हमारी बाल-बाड़ी में भगवान (ईश्वर) को साक्षात् देखकर वह सब कुछ हासिल कर रहा हूँ जो इने-गिने लोगों को ही नसीब होता होगा। क्यों जाऊँ, तीर्थाटन पर जब ईश्वर मेरे पास अपने समस्त रूपों में विद्यमान हैं?

भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

आप मीडिया में हैं, लिखिए उच्च स्तरीय लेख, लोगों को पढ़ाइए मैं तो वही लिखूँगा, जो नित्य महसूस कर रहा हूँ। जन्मा हूँ इसलिए मृत्यु का कोई भय नहीं क्योंकि एक न एक दिन इस मानव शरीर का परित्याग करना ही है। आप के पास अपने अनुभवों का आलेख प्रेषित करता हूँ, कोई आवश्यक नहीं कि उसका प्रकाशन करके मुझे अनुग्रहीत करें।
मैं अब मानसिक और शारीरिक रूप से अपने को पूर्णतया स्वस्थ महसूस कर रहा हूँ। मैं उन जननियों का आभारी हूँ, जिन्होंने बाल स्वरूप ईश्वर जैसे प्राणियों को जन्म दिया है। मैं लेखक/समीक्षक/टिप्पणीकार बाद में हूँ सर्वप्रथम मैं एक ऐसा बुजुर्ग अभिभावक हूँ जो अपनी बालबाड़ी के उपरान्त ही किसी अन्य कार्य को महत्व देता हूँ। तो यह रही हमारे बालबाड़ी की एक ‘समीक्षा’।
-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
प्रबन्ध सम्पादक
रेनबोन्यूज डॉट इन

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