ओम माथुरदेश में या तो मुसलमान बहुत नादान है या फिर राजनीतिज्ञ डेढ़ होशियार। वोटों की राजनीति के लिए देश में जिस तरह रोजा इफ्तार पार्टियों का आयोजन किया जा रहा है,उससे ये सवाल पैदा हो रहा है कि क्या देश में मुस्लिम तुष्टिकरण के बिना राजनीति नहीं हो सकती? क्या राजनीतिक दलों ने हिन्दू-मुसलमानों का वोटों के लिए बंटवारा कर दिया है? रमजान के पवित्र माह में रोजा खुलवाना भी उतना ही पाक माना जाता है,जितना रोजा रखना। ये महज खाने के लिए किसी को आमंत्रित करना भर नहीं होता। पर,कोई भी काम तभी पाक और पवित्र होता है,जब उसमें कोई स्वार्थ नहीं छिपा हो। लेकिन नेताओं ने रोजा अफ्तार को भी वोटों की तराजू में तोलना शुरू कर दिया है। साल दर साल ये सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। एक सवाल ये भी है कि क्या रोजा अफ्तार राजनीतिज्ञों के लिए अपनी ताकत दिखाने का उपक्रम बन गया है? शायद इसीलिए ऐसे रोजा अफ्तार में रोजा करने वाले मुस्लिम कम,नेताओं और उनके समर्थक व पार्टी कार्यकर्ता ज्यादा होते हैं,जो मुस्लिम नहीं होते।
ये वोटों की भूख ही तो है,कि जो भारतीय जनता पार्टी तुष्टिकरण की राजनीति का विरोध करते हुए हमेशा से मुस्लिम विरोधी नजर आती थी। वह भी रोजा अफ्तार से अब परहेज नहीं करती। कांग्रेस को इसके लिए कोसने वाली भाजपा सीधे रोजा अफ्तार रख हिन्दुओं को नाराज नहीं करना चाहती। इसलिए भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस ने पहली बार दिल्ली में रोजा अफ्तार रखा,तो भाजपा के सहयोगी एलजेपी के रामविलास पासवान ने भी यह आयोजन किया। भले ही प्रधानमंत्री ने मंच पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मंच पर एक मुस्लिम से टोपी पहनने से इंकार कर दिया था। लेकिन पासवान के रोजा अफ्तार में बिहार के अधिकांश पार्टी नेता टोपी पहने नजर आए। आखिर वहां विधानसभा चुनाव इसी साल जो है। देश के नेताओं ने वोटों के लिए न जाति छोड़ी,न धर्म को बख्शा। जिन्दा लोगों से भी वोट बटोरे,तो लाशों के नाम पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकी। शायद यही राजनीति हमारे मजबूरी है। ओम माथुर 9351415379