हे माधव,
मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालना न करने वाले अख़बारों के मालिकों और अपने हक़ की लड़ाई छोड़कर मालिकों के तलवे चाट रहे अखबारी कर्मचारियों की मनोवृत्ति मुझे भ्रमित कर रही है।
हे दयानिधान कृपया मेरी शंकाओं का समाधान करें-
कृष्ण बोले- हे पार्थ,
सुप्रीम कोर्ट में अख़बार मालिकों के खिलाफ केस न करने वाले दब्बू कर्मचारी लोहे की दीवारों में नहीं, लोहे से भी ज्यादा संघातक चित्त की दीवारों में, विचार की दीवारों में बंद हैं।
मैं वासुदेव कृष्ण आह्वान करता हूँ कि हे दब्बुओं,
तुम ऊपर से कितने ही स्वतंत्र मालूम पड़ो, लेकिन 20 जे के कागज पर साइन करवाकर यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि तुम्हारे पंख काट दिए गए हैं। उड़ तुम सकते नहीं। आकाश तुम्हारा तुमसे छीन लिया गया है और ऐसे सुंदर शब्दों की आड़ में छीना गया है कि तुम्हें याद भी नहीं आता। तुम्हारी जंजीरों को तुम्हारा वैचारिक कारागृह बना दिया गया है। उसके बोझ से तुम दबे जा रहे हो, तुम्हें बताया गया है कि मालिकों का ज्ञान ही ज्ञान है। वही शास्त्र है, सिद्धांत है।
हे दब्बुओं, यह सारा विराट आकाश तुम्हारा है मगर जीते हो तुम बड़े संकीर्ण आंगन में। स्वाभिमान में जिसे जीना हो उसे सब जंजीरें तोड़ देनी पड़ती हैं; फिर वे जंजीरें चाहे सोने की ही क्यों न हों।
ध्यान रखना, लोहे की जंजीरें तोड़ना आसान है, सोने की जंजीरें तोड़ना कठिन है, क्योंकि सोने की जंजीरें प्रीतिकर मालूम होती हैं, बहुमूल्य मालूम होती हैं। बचा लेना चाहते हो सोने की जंजीरों को। और जंजीरों के पीछे सुरक्षा छिपी है। आत्महंता जो पक्षी तुम्हें पींजड़े में बंद मालूम होता है, तुम अगर पींजड़े का द्वार भी खोल दो तो शायद न उड़े। क्योंकि एक तो न मालूम तुम कितने समय से पींजड़े के भीतर बंद रहे हो, उड़ने की क्षमता खो चुके हो। क्षमता भी न खोई हो तो विराट आकाश भयभीत करेगा। क्षुद्र में रहने का संस्कार विराट में जाने से रोकेगा। तुम्हारे पंख फड़फड़ाएंगे भी तो आत्मा कमजोर मालूम होगी, आत्मा कायर मालूम होगी।
फिर, अभी जिस पींजड़े में रह रहे हो उस पींजड़े को सुरक्षित भी मानते हो। भोजन समय पर मिल जाता है, खोजना नहीं पड़ता। कभी ऐसा नहीं होता कि भूखा रह जाना पड़े।
खुला आकाश, माना कि सुंदर है, वृक्ष हरे और फूल रंगीन हैं और उड़ने का आनंद, सब ठीक, लेकिन भोजन समय पर मिलेगा या नहीं मिलेगा? किसी दिन मिले, किसी दिन न मिले! असुरक्षा है। फिर कोई दूसरा काम भी तो तुमने नहीं सीखा।
हे दब्बुओं, यह सोच कर पींजड़े में बंद हो कि कोई हमला तो नहीं कर सकता। पींजड़े में बंद बाहर की दुनिया भीतर तो वव नहीं कर सकती। पींजड़े के बाहर शत्रु भी होंगे, बाज भी होंगे, हमला भी हो सकता है, जीवन संकट में हो सकता है। पींजड़े में सुरक्षा है, सुविधा है। आकाश असुरक्षित है, असुविधापूर्ण है। तुम द्वार भी खोल दो पींजड़े का तो जरूरी नहीं कि तुम उड़ पाओ।
अखबार मालिक कहते हैं कि मैंने तुम्हारे द्वार खोल रखे हैं लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम नहीं उड़ोगे।
सच तो यह है कि जो तुम्हारी अंतरात्मा को झकझोरता है, तुम्हारे द्वार खोलता है उससे तुम नाराज हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारे लिए द्वार खुलने का अर्थ होता है: बाहर से शत्रु के आने के लिए भी द्वार खुल गया। तुमने अपनी एक छोटी-सी दुनिया बना ली है। तुम उस छोटी-सी दुनिया में मस्त मालूम होते हो। कौन विराट की झंझट ले!
हे कपड़े के औजारों,
तुम परमात्मा हो, रत्तीभर कम नहीं। लेकिन जरा अपनी स्वतंत्रता को स्वीकार करो। और मजा यह है कि पक्षियों पर तो पींजड़े दूसरे लोगों ने बनाए हैं, तुम्हारा पींजड़ा तुमने खुद ही बनाया है। पक्षी को तो शायद किसी और ने बंद कर रखा है; तुमने खुद ही अपने को बंद कर लिया है। क्योंकि तुम्हारा पींजड़ा ऐसा है, तुम जिस क्षण तोड़ना चाहो टूट सकता है।
तुम्हारी अंतर्चेतना जगे तो समझो कि तुम्हारी चेतना परिपूर्ण व स्वाभाविक हो गई, सारे बंधन गिर गए, सारी जंजीरें गिर गईं। जंजीरें सूक्ष्म हैं, दिखाई पड़ने वाली नहीं हैं। लेकिन हैं जरूर।
यूं तो दुनिया का हर आदमी बंधा है। और जब भी कोई व्यक्ति यहां बंधन के बाहर हो जाता है तो बुद्ध हो जाता है, महावीर हो जाता है, मुहम्मद हो जाता है, जीसस हो जाता है।
स्मरण करो, अपनी क्षमता को स्मरण करो। तुम भी यही होने को हो। इससे कम मत होना। होना हो तो ईसा होना, ईसाई मत होना, ईसाई होना बहुत कम होना है। जब ईसा हो सकते हो तो क्यों ईसाई होने से तृप्त हो जाओ? और जब महावीर हो सकते हो तो जैन होने से राजी होना बड़े सस्ते में अपनी जिंदगी बेच देना है।
मैं तुम्हें चाहता हूं बुद्ध बनो, उससे कम नहीं। उससे कम अपमानजनक है। उससे कम परमात्मा का सम्मान नहीं है। क्योंकि तुम्हारे भीतर परमात्मा बैठा है और तुम छोटी-छोटी चीजों में होकर छोटे-छोटे होकर उलझ गए हो। और अगर कोई तुम्हें तुम्हारी उलझन से बाहर निकालना चाहे तो तुम नाराज होते हो, तुम क्रोधित हो जाते हो। तुमने बड़ा मूल्य दे दिया है क्षुद्र बातों को। मूल्य तो सिर्फ एक बात का है अपनी शुद्ध आत्मा का, बाकी सब निर्मूल्य है।
-राजेन्द्र गुप्ता
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