पुस्तक-परिचय
इक कली थी (काव्य-संग्रह)
कवयित्री: कंचन पाठक
दिव्य भावनाओं की सुगंध से ओतप्रोत बहती बयार है, कंचन पाठक का काव्य-संग्रह ‘इक कली थी’।
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प्रस्तुत संग्रह में कवयित्री की पचपन कविताएं हैं । ये सभी कविताएं मन का बहुत स्नेह से स्पर्श करती हैं और फिर पढने वाले को अपना बना लेती हैं । पढऩे वाला प्रसन्न हो जाता है । उसे प्रसन्नता इस बात की भी होती है कि उसके कीमती समय की यात्रा कुछ बेशकीमती कविताओं के साथ संपन्न हुई । कंचन पाठक को दर्द होता है, मानवीय संवेदनाओं के विकृत रूप से । कंचन पाठक को खुशी मिलती है, प्रकृति की अनुपम कारीगरी और सुरों के अनूठे सौंदर्य से । कंचन पाठक को ही क्यों होता है दर्द ? कंचन पाठक को ही क्यों मिलती है खुशी ? जबकि मानवीय संवेदनाएं तो लगभग सभी में होती हैं । वह इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो महसूस करने की कला है और जो इस कला में जितना पारंगत होता जाता है, उतना ही उसकी अनुभूतियों का विस्तार भी होता जाता है । कंचन पाठक को यह अनुभूतियां हुई है, इस बात की एक नहीं बारम्बार गवाही देती हैं उनकी ये कविताएं । इनकी कृति से गुज़रते हुए मन चकित साभार था । इसलिए मेरी क़लम ने ज़िद पकड़ ली कि ‘इक कली थी’ पर लिखना ही होगा । क़लम का साथ मन ने भी दिया । मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उत्थान का मनस्वी मार्ग है । चूँकि व्यष्टि और समष्टि का दृष्टिकोण ही जीवन को परिभाषित करता है। समष्टि भाव विश्व-मैत्री की राह प्रशस्त करता है । आपकी रचनाओं में इसकी स्पष्ट छवि दिखाई देती है । काव्य-से सरल जीवन को हमने ही कंटकाकीर्ण बना दिया है । व्यक्ति के वर्तमान जीवन में चहुं ओर नाना प्रकार के मानसिक उद्वेलन दिखाई देते हैं । राग-लालच-ईर्ष्या समेत अनेक नकारात्मक भाव भी मन को शांति से नहीं रहने देते । जीवन के हर क्षेत्र में तनाव व्याप्त है । क्योंकि तनाव देने वाले विविध आयाम जीवन के हर क्षेत्र में विद्यमान हैं । कई बार व्यक्ति स्वयं भी जाने-अनजाने अनेक तनावों के ताने-बाने बुन लेता है, और उनमें उलझ कर रह जाता है । ऐसे में उसके मन की वीणा के तार प्राय: मौन ही रहते हैं । लेकिन जब कंचन पाठक की कविताएं हौले-हौले से वीणा के तारों की संगत के लिए मचल उठती हैं तो फिर मन में झंकार उत्पन्न करके हीं मानती है । यही नहीं, जब जगत् व्यापी कोलाहल, भीषण गर्जन करने पर आमादा हो जाता है, तब कंचन पाठक की ये कविताएं अपनी प्रवाहमयी, लयात्मक भाषा-शैली के माध्यम से गुनगुनाते, पढ़ते वाले के आंखों के बीहड़ से होकर भावनाओं के स्नेहसिक्त सेतु-सी चलती-चलती हृदय-मार्ग से भीतर तक उतर आती हैं । कंचन पाठक की कविताओं में धरती है, नदी है, नारी है, आकाश है … मंगलतिथि है, निराला बचपन है, प्रेम है, मां-वीणापाणि हैं और इस बात की प्रतीक्षा है कि सच्चा गणतंत्र भी आएगा । अनेकानेक संदर्भों के माध्यम से बात कहने के बजाय, मैं यहां कवयित्री की दो कविताओं की कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं, आपके आस्वादन के लिए-
1.
एक प्रश्न है, हे ! रघुवर तुमसे
पूछते विषाद से फटती छाती
तज सिय जो छूते अहिल्या को
क्या तब भी अहिल्या तर पाती
हुआ छल से था वह शीलहरण
जिसे स्पर्श तुम्हारा तार गया
छल से ही मैथिली हरी गई
क्यूं यंत्रणा अविहित उजाड़ गया
संदेह विश्रृंख्लित उन्मीलन
लज्जा से प्रणत भूमिजा ग्रीवा
यह प्रश्न अनुत्तरित सदियों से
पूछे नयना बहे सदा नीरा … ll
(अनुत्तरित प्रश्न से -)
2.
अंकुराई ललक कामना की
धड़कन में मंद सुरूर-सा है
फूले हैं हृदय में कनक-चंपा
अहसास नशे में चूर-सा है
कर प्राण-प्रतिष्ठित प्रेम मंत्र
दीपक अनुराग जला तो लूं
एक नील पुहुप सपनों वाला
नयनों में आज खिला तो लूं ll
कंपित है गात पुलकरस से
अधरों पर प्यास प्रखर छाई
बिखरे परिमल कुंतल कपोल
मधु-ऋतु अंगों में घुल आई
सुधि सुनयन के आलोड़न की
अंतर-अभिलाष सजा तो लूं
एक नील पुहुप सपनों वाला
नयनों में आज खिला तो लूं ll
(नील-पुहुप से -)
मैं सहमत हूँ हमारे समय के एक अति महत्त्वपूर्ण प्रबुद्ध साहित्यकार आदरणीय पंडित सुरेश नीरव जी से कि – ”कंचन पाठक ने सृजन के तुलसी क्षणों में अपनी ऋचा-दृष्टि के साथ शब्दों को अपनी छंदबद्ध कविताओं में उनकी स्वाभाविक लय के साथ इस करीने से रखा है कि वे अनहतनाद का सात्विक मंजुघोष बन गए हैँ । ये कविताएं सामाजिक अनुषंगों से आबद्ध वे शब्द-चित्र हैं जो कंचन ने धूप के पृष्ठों पर छांव की तूलिका से उकेरे हैं।’’
नारी मन के भीतर निरंतर उमड़ते-घुमड़ते प्यार, प्यास और संघर्ष के विविध रंगों का मुखर रूप हैं ये कविताएं । ‘इक कली थी’ को पढऩे के बाद आप बहुत कुछ सोचने पर विवश हो जाएंगे । नई तरंग, नई ऊर्जा के स्पंदन भी महसूस करेंगे । संभव है, आप यह भी कह दें कि – ”हे कंचन पाठक ! अंत:करण में आपकी ही कविताओं की मोहक रोशनी है । हमने जैसे मोतियों से भरे थाल का स्पर्श किया हो । वास्तव में इन रचनाओं की इतनी आकर्षक शोभा है ।”
निस्संदेह कंचन पाठक के काव्य-माधुर्य को काव्य-प्रेमी हृदय अपनी स्मृति में सहज ही अंकित कर लेंगे । लेकिन मन है कि मानता नहीं । मन अभी भरा नहीं…..काश ! जल्दी ही इनकी कविताओं की अगली पुस्तक भी मिले । हो सकता है, कंचन जी तैयार कर रही हों, अगली पुस्तक । अथवा इन पंक्तियों को पढ़कर ही विचार कर लें…..मुझे नहीं मालूम, लेकिन ऐसी आशा, ऐसी शुभ अपेक्षा तो की ही जा सकती है ।
कंचन पाठक के काव्य-सृजनतीर्थ के इन पचपन सोपानों पर उनकी काव्य-साधना को सघनता से साक्षी भाव के साथ देखना, समझना, महसूस करना और रुक-रुक कर आगे बढऩा…..सचमुच एक दिव्य अनुभूति है । पढ़ेंगे तो स्वयं जानेंगे कि इस दैदीप्यमान हस्ताक्षर का हिन्दी के साहित्यिक आकाश में हृदय से स्वागत होना ही चाहिए ।
प्रकृति, संगीत और शब्द-ब्रह्म की उपासना में रत आपकी क़लम को पूजयितव्य क़लम की संज्ञा दी जा सकती है । आपकी क़लम के भीतर विराजमान इरा को ह्रदय से प्रणाम ।
– सुधीर सक्सेना ‘सुधि’
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020