दस्तक

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
मेरे घर के
बन्द द्वार पर
प्रायः दस्तक होती है।
मुझे लगता है कि
कोई मेहमान आया है!!
दस्तक-दर-दस्तक पर
मैं
दिवास्वप्न देखता हूं कि
आए हुए मेहमान ने
मेरे पूरे परिवार के लिए
उपहारों का टोकरा
घर के बरामदे में उतरवाकर
रखा हुआ है।
वह मेहमान
मेरी पत्नी को शिफान की साड़ी
बच्चों को खिलौने एवं कपड़े देगा
मुझे जैकेट एवं कुता-धोती
मैं हर दस्तक पर खुश होता हूं।
सपने देखता हूं।
अपने घर के द्वार पर खड़े
उस मेहमान के स्वागत के लिए
तोरणद्वार बनाता हूं।
मैं हर दस्तक पर भूल जाता हूं
अपनी मुफलिसी, शोक संताप
और त्रासदी भरा जीवन!!
लेकिन हर बार की दस्तक पर
मेरे सपने मात्र सपने बनकर ही रह जाते हैं।
और
मेरे द्वार पर
दस्तक देने वाला मेहमान
मुझे अपेक्षित वस्तुएं
उपहार में नहीं देता है।
देता है तो सिर्फ
वह सभी वस्तुएं
जो मुझे विरासत में मिली हैं
मसलन-
गरीबी, संत्रास आदि…………
और दस्तक
बदस्तूर जारी रहती है!!!
-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
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………….मैं गरीब नहीं?
गरीब
और मैं-
मैं गरीबी रेखा से
नीचे होकर भी
गरीब नहीं!
मेरे नाम पर
सरकारी योजनाएं
चल रही हैं
परन्तु-
वे सब मेरे किसी
काम की नही है!
वे मात्र आंकड़े हैं
और आंकड़े
कुछ भी सिद्ध कर
सकते है!
यानी गरीब को अमीर
अमीर को गरीब!
बैंकों के ऋण
मेरे लिए नहीं है
क्योंकि मैं-
गरीब नहीं हूं।
गरीब तो वे हैं जो-
बैठे हैं वातानुकूलित
कमरों में
और फाइलों के
झरोखों से झांक रहे है
मेरे इस नंगे बदन को!
बना रहे है योजनाएं
और दोनो हाथों से
समेट रहे है अनुदान!
इसीलिए
पुनः चीखकर कहूंगा
गरीब और मैं……
बिल्कुल नहीं,
मैं गरीब नहीं हूं!!
-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
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जहरीली घुटन
दीवारों पर पोस्टर
और पोस्टरों में
व्याप्त भय हवा गर्म
और गर्म हवा में
एक जहरीली घुटन।।
कूंचे गली सड़कों पर
रात के सन्नाटे में
व्याप्त अंधकार
लगता है बन गया है
मानव भक्षी!!!
हमने-
अब अंधेरे में रहने की
आदत डाल ली है।
वर्तमान देखकर
किसी भी कार्य के लिए
कदम बढ़ाएंगे!!
रुकते हैं,
ठहरकर सोचते है-
जिसने भी कदम बढ़ाया है
वह कहीं पर
गुम हो गया है।
हमने वर्तमान परिवेश को
नित्य गालियाँ दी हैं।
हमें क्रोध आता है
लोगों पर-
जो हमारे रिश्तों में
दरार डालने के लिए
भव्य समारोहों में
फीते काटते है!!
हमें अहसास होता है
हमारे खून के रिश्ते
कट रहे हैं
और हम पाषाण
बन गए है!!!
यही नहीं-
हमें प्रतीत
होने लगा है कि-
लोगों के षडयंत्रो मेें भी
दोगलापन आ गया है।
और
सभी का पूर्ण आस्तित्व
भीड़ में कहीं
खो गया है।।
-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
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बुत बनकर भी सब देख रहा हूँ
मैं,
दर्द समेटे सर्दियों से
एक बुत बना
खड़ा हुआ हूं।
मैंने-
देखा है हंसकर
बिताए गए व्यतीत को
और आज-
उन्हीं के उदास चेहरो को
देख रहा हूँ।
मैं शिला की मूर्ति
जिसे लोग
निर्जीव मात्र समझते हैं,
उन्हें मैं नासमझ मानता हूं।।
वे ही-
रास्तों में चलकर गिरते हैं
ठोकरें खाकर।
और मैं-
शिलाखण्ड सिर्फ
देखता हूँ उन्हें।।
यही नहीं-
उनके साथ-साथ
हरेक की कहानी
देख-सुन रहा हूं।
सबके कथानक एक जैसे है।।
मेरे जेहन में,
एक प्रश्न उठता है-
बताओ कहाँ गए वो दिन,
जब हर जगह
खुशनुमा नजारे ही
नजर आते थे?
और अब मैं-
इस दौर के
उन मासूम चेहरों पर
दहशत का साया
देख रहा हूं।
प्रतीत होता है-
सभी उस समय के
प्रेम-पुजारी
अब मेरी तरह
पत्थर की मूर्ति बन गए हैं।।
मै-
तन-मन,
दिल-मस्तिष्क लिए
एक बुत सा बना
खड़ा हूं
सुन रहा हूं-
वे चीखें ही ‘आहैं‘ जो
आज सबके
व्यक्तित्वों से निकल रही हैं।

-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)
मो.नं. 9454908400

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