कन्हैया कम्युनिस्ट बनाम अन्य पार्टिया

विकास कुमार गुप्ता
विकास कुमार गुप्ता
मैने कन्हैया का भाषण सुना मार्क्सवाद की याद दिला रहा था। लेनिन भी तो मार्क्स के ही विचारों पर चलायमान थे। मार्क्स और एंगेल्स लगभग एक ही विचारपंथी और समान विचारधारा के थे। कन्हैया कह रहे थे कि उनकी अथवा वामपंथ की आवाज आम जनता नही समझ पाती और अन्य पार्टियों के लुभावने वादों पर वोट देती है। मदारियों का अनुसरण करती है। हम मानते है बीजेपी ने इस चुनाव में ऐसा मनभावन फेकु वादे किये है जिनको पूरा करना सपना सरीखा है और आजादी पश्चात इतना फेकु वादा शायद ही किसी ने किया हो। जब देश के स्थानीय स्तर पर रोडे आजादी पश्चात जीतनी ही चौड़ी है जिसपर दो गाडि़या तक साथ नहीं चल सकती है और अगर मेट्रो शहरों को छोड़ दिया जाये ंतो छोटे शहरों के रोडो का लगभग यहीं हाल है। टूटे फटे गड्डे ही उनका सिम्बल बन चुके है और लोग त्राहीमाम करते हुए किसी तरीके से रोड पर गाडि़या चला रहे है इस स्थिति में बुलेट ट्रेन पहले जरूरी है या देशभर के तमाम छोटे शहरों के बजबजाते रोडो को चोड़ा और दुरुस्त करना। जितने में बुल्लेट ट्रेन बनेगा उतने में देश के सभी छोटे शहरों के रोड चौड़े और चलने लायक हो जायेंगे। जहां बुलेट ट्रेन से चंद आबादी को फायदा होगा वहीं रोडो के सही होने से कई करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। खैर अब आते है वामपंथियों के उपर तो हम पूछते है पिछले 68 वर्षों में केन्दिय स्तर पर आखिर कम्युनिस्ट पार्टी फल फूल क्यो पाई? आखिर सत्ता से बेदखल क्यो रही? सिर्फ मार्क्स और लाल सलाम के नारे लगाने और उनके सिद्धान्तों समाजवाद और कम्युनिज्म की दुहाई देने और राग अलापने से क्रान्ति नहीं आती। क्रान्ति आती है संघर्ष, बलिदान और अप्रतिम त्याग से। जिन मार्क्स के सिद्धान्तों पर ये वामपंथी चलायमान है कभी उनका अनुसरण किया क्या? जितना संघर्ष मार्क्सवादियों ने अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में किया है उतना भारतीय परिवेश में हो पाया। मार्क्स अनेक देशों से निकाले गये। उनकी अनेक पत्रिकायें और अखबार बन्द किये गये। उनको अपना भेष तक बदलना पड़ा। कई हजार लेख, सौ से अधिक किताबें और कई हजार सभायें वो भी मजदूरों, छात्रों, किसानों से लेकर हर उस सर्वहारा वर्ग के मध्य जिनके बल पर क्रान्ति की जा सकती थी। सैकड़ो लाईब्रेरियों में समाहित भिन्न भिन्न विचारकों और सिद्धान्तियों की किताबों की खाक छानने के बाद इनमें वो प्रतिभायें समाहित हुई। अब आते है लाल सलाम पर तो लाल सेना लेनिन ने ही बनाई वो भी मार्क्स के विचारधाराओं पर चलकर। पैम्फलेटों, किताबों और अखबारों के बल पर ये क्रान्तिकारी सर्वहारा और विचारकों को सामंतवाद, पुंजीवाद और साम्राज्यवाद के मिथक को तोड़ना चाहते थे और इन्होंने अपने अथक और अप्रतिम प्रयासों के बल पर तोड़ा भी। प्रश्न उठता है क्या यहां के वामपंथी मार्क्स और लेनिन सरीखे पुरोधाओं का 10 फीसदी भी प्रयास भारत में कर पायें। तो मेरा जवाब है कतई नहीं। ये तो चीन और रूस से छपी छपाई हिन्दी अनुवादों को यहां झोंकते रहें। कभी इन्होंने इसकी जरुरत समझी की भारत के सर्वहारा वर्ग की बुद्धी क्षमता या ग्राहयता कितनी है? और उसके हिसाब से साहित्य और सामग्री जनता तक पहुंचाई जाये। यहां शुष्क विचारधारी ही वामपंथ के शीर्ष पर तैनात हो गये। मार्क्स और लेनिन ने आजीवन अपने पंथ और विचार से समझौता नहीं किया वे जिस पथ पर चले थे आजीवन आमरण उस पथ का पालन किया और अनकों क्रान्तियां की। मार्क्स और लेनीन सरीखे क्रान्तिकारी क्रान्ति और कम्युनिज्म के प्रति इतनें बेचैन थे कि अथक मेहनत कभी कभी बिना सोये भी किया करते थे। कई हजार किताबों का अध्ययन किया ताकि साम्राज्यपादियों और पूंजिपतियों समेत सामंतियों आदि के पक्ष में तैनात थिंक टैंकों के विचारों की ये धज्जिया उड़ा दें ताकि जनता साम्राज्यवादियांे और पूंजिपतियों अथवा शोषकों का विरोध कर सके। अगर कन्हैया कह रहे है कि जनता तक वामपंथी विचारधारा नहीं पहुंच रहीं तो हम पूछना चाहेंगे कि आखिर मार्क्स और लेनिन सरीखे लोगों ने जनता तक पहुंच कैसे बनाई। जनता तक पहुंचने के लिये संघर्ष और अप्रतिम त्याग समेत बहुत से प्रयास करने होते है जोकि सिर्फ भाषणबाजी से नहीं हो सकती। सर्वहारा तक पहुंचने के लिये सर्वहारा के बीच जाना पड़ेगा। कन्हैया तो सिर्फ जेल गये थे तो इतने में परेशान है जबकि मार्क्स की पत्नी जेनी को वेश्याओं के साथ जेल में रखा गया था। अरे क्रान्ति ऐसे नहीं आती है क्रान्ति त्याग और बलिदान मांगती है। जो क्रान्ति वामपंथियों के आजादी के पहले कर लेना था वो अब आज उसके लिये परेशान है। सबको पता है कि आजादी अवसरवादियों, पिछलग्गुओं और विभिषणों के हाथ में आ गई। अब आ गई तो गई सारा सिस्टम अवसरवादियों और पिछलग्गुओं के हाथ आया और उन्हीं की संतती ने लगातार विकास किया अपने परिवार का औरा संपत्ति का। राहुल सांकृत्यायन ने लेनिन की जीवनी में लिखा है ”क्रान्तिकारियों के ही नहीं, रूसी कर्मकारो, किसान वर्ग और पराजित जातियों के ऊपर भी आये दिन घृणित अत्याचार होते थे। उस समय के उदारवादी भारत के उदारवादी वालोें की तरह ही अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता के नाम पर शासकों के सामने पूँछ हिलाना और उनके जूते चाटना अपना परम धर्म समझते थे। इस अमानुषिक क्रूर शासन के विरुद्ध; ज़बान हिलाने की हिम्मत उनमे नहीं थी। शुक्र है कि इन विभीषणों का रुस में अब यदि कही कोई नाम लेता है तो उन पर थूकतें हुए ही जब कि हमारे यहां के अंग्रेजों के जूते चाटने वाले आज भी देशभक्त बनाये जा रहे है उनके नाम पर दिल्ली में बड़ी-बड़ी इमारते खड़ी की जा रही है और पुराने देशद्रोही गन्दे नाले के कीड़े आज के शासकों की छ़त्रछाया में हमारे सामने जनतांत्रिकता के बारे में रेडियो पर उपदेश देने की हिम्मते करते है।” यह जीवनी पचास के दशक में लिखी गई थी। सर्वविदित है कि भारत में आजादी क्रान्ति अथवा मार्क्स और लेनीनवादी परंपरा पर नही आई बल्कि यह एक समझौतावादी आजादी थी। लेखक लैरि कॉलिन्स और दॉमिनिक लैपियर लिखित पुस्तक आधी रात की आजादी में तो यहां तक जिक्र है कि नेहरू और पटेल ने लुई माउंटबेट को सबसे छुपाकर कुछ दिनों के लिये फिर से सारे अधिकार दे दिये थे क्योंकि ये दोनो दंगों को रोक पाने में असफल थे। नेहरू और पटेल दोनो ने गुपचुप माउंटबेटन से मुलाकात की थी और कहां आप संभाल लीजिये। रहीं बात जेएनयू और वामपंथी विचारधारा पर भाषणबाजी की तो सिर्फ भाषणबाजी से क्रान्ति नहीं होती। मै वामपंथियों के पक्ष में हूं लेकिन भारत के वामपंथी के शीर्ष लोग न सिर्फ छद्म भेष धारी है वरन वे सहीं में कार्य कर सकने वाले जमीनी और स्थानियों लोगों के साथ आजादी के समय से धोखा देते आ रहे है। क्रान्ति विचारों के शान पर होती है और विचार आते है अप्रतिम अध्ययन और मनन के उपरान्त त्याग और बलिदान से। लेकिन यहां आजादी के पहले के त्यागियों को तो अवसरवादियों और विभीषणों ने मरवा दिया और आजादी के बाद जिनके हाथ में वामपंथ आया उनके शीर्ष पंगू ही साबित हुये। अन्त में मैं यहीं कहना चाहूंगा कि ये पब्लिक है सब जानती है और जानती है तो आखिर 68 सालों से वामपंथियों को पहचानती क्यों नही? इस प्रश्न पर वामपंथियों के गंभीर विचारणा की जरुरत है।
लेखक विकास कुमार गुप्ता, पीन्यूजडॉटइन के सम्पादक एवं स्वतंत्र पत्रकार है।

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