पिछले कुछ अर्से से धर्म के धरातल पर जो बदलाव देखने को मिल रहा है, उससे आध्यात्म में आस्था रखने वाले लोग हैरान हैं। सादगी का पर्याय बने ये संत खुद विलासिता की ओर चल पड़े है। उन्हें चाहिये सुख, साधन और वे सहयोग जो नेताओं को मिल रहे होते हैं। सवाल है, ये कैसा आदर्श ?
एक प्रसिद्ध समाचार पत्र के कर्ताधर्ता गुलाब कोठारी ने अपने आलेख में धर्म के ठेकेदारों को आईना दिखाया है। विलासिता पर भरोसा करने और आम जनता से दूरिया बनाकर रखने वाले कदापि संत नहीं हो सकते। यह मानना है धौलपुर की रश्मि जैन का। इसी क्रम में अहमदाबाद के निर्मलेश आर्य मानते हैं कि, अपने आलेख ‘समाधान दे कुंभ’ के जरिये श्री कोठारी का कहना सही है कि, ” धर्म निर्पेक्ष बनकर हमने धर्म को ही जीवन से बाहर कर दिया है!
यही कारण है कि, आज वेद, पुराण – उपनिषद् आदि सभी साम्प्रदायिक कहलाने लग गए हैं। कुंभ जैसे विशाल आयोजनों में धर्म का जो – आडम्बर सजता है, उसमें धर्म की मूल भावना कहीं खो जाती है। नेताओं की सभा और धर्म सभाओं में ज्यादा फर्क नही दीखता। धर्म आस्था पर आधारित है, उसका बाहरी आडम्बरों से कोई सरोकार नहीं है।
देवली के जुगलकिशोर कहते है, ‘सिंहस्ध
में इनदिनों ‘मठों’ और ‘अखाड़ों ‘ के नाम पर जोकुछ दिखाई दे रहा है, उससे ‘त्याग’ और ‘तपस्या’ की – जिन्दगी बिताने वाले संतों की छवि धूमिल होती नजर आती है। धर्म और राजनीति से जोड़कर दैखने लग जाएंगे तो, ऐसे ही ‘संत’ नजर आएंगे। जो प्रवचन कम और प्रदर्शन ज्यादा करते हैं।
नई पीढी के पास दिशा नहीं है। कोई उन्हें धर्म की दिशा नहीं दिखा रहा है। चूँकि, संत स्वयं धर्म के ‘मर्म’ को नहीं कहते, बल्कि अवतार, कर्मकाँड और चमत्कार में उलझा रखा है, नई पीढी को । जबकि धर्म तो ‘तन’, ‘मन’ और ‘कर्म’ से धारण करने का नाम है।
प्रवचन जो दिये जाते हैं उनमें भी, मर्म की ‘समीक्षा’ होनी चाहिये। संतो की व्यवसायिकता की प्रवृति सेभी, नई पीढी को वितृष्णा हो रही है। ‘मन’ को कैसे – नियत्रित करें, इसकी बात नही होती। हिन्दुधर्म सभ्यता का दर्शन नजर आता है। यह मानना है, चैन्नई की डा.
सुनीता जाजोदिया का, यों भी वे डा. कोठारी का लेख प्रेरणादायी मानती है।
भारतीय संविधान में सबको बराबरी का अधिकार प्रदान किया है। संविधान के दायरे से बाहर जाकर ‘कुंभ’ जैसे पावन आयोजन में राजनीति की – ‘घुसपैठ’ आयोजनों के नाम पर न्यायसंगत नही कही जा सकती। धार्मिक आयोजनों में जातिगत राजनीति का कोई स्थान ना हो, तभी देशहित में समझी जा – सकती है ‘राजनीति’।
यह सही है, कि, संतों, साधुओं के मठों मे सुख की तलब बढ रही है। वहाँ लिफाफा, चैक, वस्त्र अथवा महंगी धातुई भेंट के चढा़वे जैसा रिवाज अब अपनी जड़ें जमा चुका है। दर्शन करने कराने के नाम पर बड़े मदिरों में फीस ली जाने लगी है, भक्त अथवा दर्शनार्थी को कैटेगिरीवाईज तौला जा रहा है। नामी – जगहो पर महिलाओं को पूजा अर्चना और प्रवेश पर जद्दोजहद करनी पड़ रही है । तो कहीं पुजारियों या घाटों पर पण्डों का दबदबा ज्यादा दीखने लगा है।
यानी समाज का साधारण ‘आदमी’ तो उस भगवान के दर्शनों को ही ‘लालायित’ रह गया है, जिस भगवान के नाम पर साधु संत अपनी राजनीति की नई चपातियाँ गर्मा रहे है। क्या वाकई राष्ट्र के लिये जरूरी लगता है, उन्हे यह सब ?
असल मे , गऊ माता, मंदिर, मठ, संत और साधु सभी खो गये है। पूजनीय कहाती गऊमाता, को सड़क पर कचरा खाने और पेट भरने को भटकना पड़ रहा है।लोग पालते हैं सिर्फ दूध पाने के लिये फिर छोड़ देते हैं खुला , भावना इसकदर बौरा जाएगी सोचा नही गया कभी। भगवाकरण भी केवल समय पर ही -उछाल मारता है, तो दूसरी ओर देश ‘बीफ’ के विदेशी निर्यात पर ‘बहुत-आगे’ चल पड़ा है। सवाल यह भी, ये कैसी आस्था विकसित हो रही है ? क्या धर्म की ‘रक्षा’ के नाम पर राजनीति करने वाले नेता कान मे तेल – डाले सो गये हैं ! राजनीति से प्रेरित युवा मन, केवल ट्रको मे गाय बछड़ों को लाते लेजाते वक्त, पकड़ने पर ही अपने धर्म की इतिश्री मान बैठे है। दिशाहीन द्रश्य है हर रोज सामने । इधर संत हैं , टीवी चैनलो पर जारी अपने प्रवचनों में, ‘गऊमाता’ पर ही लम्बे चौड़े ज्ञान को बाँटते नही थक रहे। कभी कभी इनका ऐसा अंदाज – व्यवसायिक सा लगने लगता है!
बड़े नेता ऐसे अवसरो की ताक मे रहते हैं वे साधु संतो के साथ डुबकी लगाते हैं चाँदी के थाल में भोजन कर, आशिर्वाद लेने को खबरों में प्रचारित भी कराते हैं ये उनका अपना ही फंडा है।
साधु संत बड़ी बड़ी सुविधायुक्त गाड़ियों में सफर करते है। तो दूसरी ओर संत भागवत कथाओं मे यह कहते नहीं थकते कि, आपके मन मे सात्विक भाव आए तो समझो , आप ईश्वर की ओर बढ रहे हैं । आगे कहते हैं भागवत तो कल्पतरु है। धर्म के अनुसार कर्म करने पर जोर। अब तीसरी ओर नई पीढी जिसकदर
भौतिक चकाचौंध में खो रही है, कि, उसे – भगवान का केवल नाम ले लेना ही श्रेयस्कर लगता है।
….. भला अब कौन बताए कि, ठाकुर जी तो ‘मनमंदिर’ में ही बिराजे हैं। उनका ऐसे आडम्बरों से क्या लेना देना है। बाहरी द्रश्यजगत और उलझनें – पहुँचने नहीं दे रही भीतर की ओर। यों प्राणायाम, – सदगुरु, योगाभ्यास और शुद्धसंतों के दर्शन व सानिध्य मात्र ही से मनमंदिर के उजास की राह आज भी – आसान है। पर सवाल ये भी है कि, जो कुछ त्याज्य माना गया है उसे तजे कौन, कैसे और भला किसलिये ?
