हम जानते हैं कि नोटबंदी के कोहरे ने हमारी खुशहाली, गति, दृष्टि से लेकर सच और संवेदना तक सब बाधित किये हैं। कालेधन, भृष्टाचार सरीखी अनाम उम्मीद की हल्की सी रौशनी और आगे बढ़ने की त्वरा में हम ये तक नहीं देख पा रहे कि ठिठुरते फुटपाथों पर सोने वाला भारत हमारे पाँव से कुचला जा रहा है। नीति से उपजी नियति को तरक्की की कीमत और धुएं और धुंध के गठबंधन को देश का भविष्य बताया जा रहा है। व्यापरिक घाटा, बेरोजगारी, विकास दर, मुद्रा स्फीति सरीखे हर अँधेरे को केशलेश की आभासी रौशनी से ढककर उजालो को निष्कासित किया जा रहा है। सूरज को आग का गोला और घर फूँकने वाली मशाल को देवता माना जा रहा है।
नए मौसम गढ़ने वाले भूल जाते हैं कि प्रकृति अपना आलेख खुद रचती है। जब-जब किसी राजनीती या समाज ने मौसम को अपने रंग में रंगने को कोशिश की तो वह खुद बेरंग हो गया। हाँ, कुछ समय के लिए कृत्रिम वातावरण बनाकर सम्मोहन जरूर खड़े किये गए। अंधेरों को उजाला मनवाने की जिद या फिर कोहरे की धुँधली रौशनी में आगे बढ़ने की मजबूरी की अनावश्यक मुठभेड़ में मानवता ही घायल होती है। खुशहाल समाज का मौसम उसकी अपनी मुद्रा बनाती है। पेट और परिश्रम अपने हिस्से के हवा, पानी, धुप, खुशबु, माटी से अपना मौसम खुद रचते हैं। इस समय मौसम और मुद्रा दोनों घने कोहरे की जद में हैं।
तब ग़ालिब की ये गजल बहुत याद आ रही है-
कोई उम्मीद बर नहीं आती/ कोई सूरत नजर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी /कुछ हमारी खबर नहीं आती
रास बिहारी गौड़
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