
कंही तो कुछ ऐसा है जो
मैं भी समझ नही पा रही
मै कुछ लिखना चाहती हूं
पर लिखने को शब्द
नही मिल रहे
लगता है कंही खो गए हैँ
मेरे शब्द
खुद को अभिव्यक्त
करने के लिए मुझे मेरे शब्दों को
ढूंढना ही होगा
अक्सर एक अंतर्द्वन्द्व सा
महसूस करती हूं अपने अंदर
कुछ घुटन सी महसूस होती है
मानो मेरे शब्द बाहर आने
के लिए छटपटा रहे हों
अगर बाहर न आ सके
तो मेरे शब्द मर जाये गें
फिर कैसे जुबां दूंगी अपने
मनोभावों को
चाहकर भी खुद को बचा न सकूँगी
इतनी घुटन क्यों हो रही है
मै तो सिर्फ खुद को
पहचान देना चाहती हूं
पर कैसे नही जानती
लिखना चाहती हूँ खुद को
व्यक्त करना चाहती हूँ
पर कैसे नही जानती
मुझे खुद को तलाशना है जो रिश्तों
की भीड़ में कंही खो गई है
खुद को पहचान दिलानी है
इसके लिए अपने कदमो के तले
की जमीं को तैयार करना होगा
खुद के लिए राह तलाशनी होगी
सारी जिंदगी बेटी बहन पत्नी और माँ
बनकर ही तो जीती रही हूं
अब मै खुद के लिए जीना चाहती हूं
क्या ये सम्भव हो सकेगा
“कौन हूं मै”
क्या इसका जवाब मिल सकेगा
“क्या पहचान है मेरी”
…….कुछ भी तो नहीं
रिश्तों की भीड़ में कंही खो गया है
“मेरा अस्तित्व”
मुझे “मेरी पहचान” वापिस चाहिए
……क्या मिल सकेगी मुझे
मेरी पहचान…???
रश्मि डी जैन
महसचिव, आगमन साहित्यक समूह
नई दिल्ली