
उसका नारी मन
डरती भी है रोज़ाना
वही रात फ़िर आएगी
घूरती निगाहें तुम्हारी
उसकी सम्पूर्ण देह को भेदती हुई…
अनादिकाल से तुम्हारा और उसका
एक ही रिश्ता रहा
मर्द और औरत का
सिर्फ जिस्म से जिस्म का…
पुरुष के लिए नारी
सिर्फ भोग्या रही..सिर्फ शारीरिक संतुष्टि का साधन मात्र…
अनेक रिश्तों में बंधी होने के बावजूद
हर पल हर क्षण दिया
अपनत्व का अहसास…
लेकिन तुमने तो नारी को
सिर्फ एक शरीर ही समझा है न
आज तक..है ना
सदैव तन को जाना, मन को नही
नारी के रूप में
अनेको रिश्ते निभाए है उसने..
‘कभी माँ बन कर देखभाल की
तो कभी बहन बन कर किया दुलार
तो दिया कभी प्रेयसी का प्यार
बेटी बन कर सेवा की
तो बन कर दोस्त दिया तुम्हारा साथ’ हर मौके पर दुःख और सुख में..
आखिर तो
बनकर पत्नी कर दिया समर्पण
सम्पूर्ण समर्पण…
लेकिन तुम आगे न बढ़ सके
कभी देह से उसकी…
न जान सके कभी मन को
जाना तो सिर्फ तन को …
हां सिर्फ तन को…
एक दासी की भांति
उसमे सिर्फ समर्पण ही तो खोजते रहे जीवन पर्यन्त…
मन से तुम्हारी न होकर भी
तुम्हारी बनी रही..तो सिर्फ तन से…
आखिर वो एक स्त्री ही तो है
हां ‘सिर्फ एक स्त्री’…
रश्मि डी जैन,
महासचिव, आगमन साहित्यक समूह
नई दिल्ली