वो मेरी प्यासी जड़ों को ज़िन्दगानी दे गया.
रात भर महका किया जिस शख्स की खुशबु से मैं,
कौन था वो और कैसी रातरानी दे गया.
उम्र भर क्या-क्या कमाया जब किया उससे सवाल,
पोटली में बाँध कर क़िस्से-कहानी दे गया.
एक पल में ले गया मेरी जवानी छीनकर,
और बदले में मुझे अपनी जवानी दे गया.
डाकिया इस बार जब आया तो मेरे हाथ में,
चिट्ठियों के साथ कुछ यादें पुरानी दे गया.
वो ख़ुशी का हर इलाक़ा ले गया था जीतकर,
और समझौते में ग़म की राजधानी दे गया.
राह चलते अजनबी सा एक पल ठहरा था वो,
दर्द लेकिन जाते-जाते ख़ानदानी दे गया.
ले गया मुझसे बदल कर ज़ख्म यूँ तो वो सभी,
पर वो हर इक ज़ख्म की ताज़ा निशानी दे गया.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी