
कुल मिलाकर *”अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल”* में अपने राष्ट्रीय आकाओं के अंतराष्ट्रीय एजेंडे पर स्थानीय शाखा की युवा इकाई ने नसीरुद्दीन शाह के ‘डर’ वाले कथन को सही सिद्ध करने के लिए कड़ी मेहनत की। डराते हुए हामी भरवाई,”बोलो! डर लगता है?” डरते-डरते बोलना पड़ा कि हमें डर नहीं लगता। डर के दुश्मनों ने अपने नारों, हल्ले, हुड़दंड, से पहले सड़क को, फिर पांडाल को डराया। कविता में निडर होने की बात करने वाले 80 वर्ष के नरेश सक्सेना को डराया। व्यंग्य में डर का उपहास उड़ाने वाले संपत सरल को डराया। ग़ांधी की शिक्षा से दीक्षित अनिरुद्ध उमट को डरा कर बताया कि भले ग़ांधीवादी अंग्रेजो से ना डरें हो, पर हमसे डरना पड़ेगा। बड़ी मेहनत- मशक्कत की कि डर को उनके सिवाय कोई डराने की हिम्मत ना कर सके। सुनने -गुनने आई निर्भयाओं को उनके नाम की निरर्थकता से डराया। तुतलाती जुबानों को दहशत से, शब्द को शोर से, संवाद को नारों से और साहित्य को हिंसा से डराया। डर का प्रसार -प्रचार भी ऐसा किया कि देखने-सुनने वाले डरते डरते कहने लगे कि यार किसको और किससे डर लग रहा है। परिणामस्वरूप सब डर गए। धर्म के राजनैतिक झण्डारबर्दार खुश हो गए कि सब डर गए यानि कि मर गए। गब्बर सिंह स्टाइल में ‘जो डर गया समझो मर गया।’ डरकर भी ये मानना मना था कि आपको डर लगता है। इसे कहते हैं ताकत कि डरकर भी डर की बात करते हुए डर नए सिरे से लग सकता है।
नसीरुद्दीन शाह को डर लग रहा था। इसलिए उन्हें सही साबित करना था। साबित कर दिया। साबित करने के लिए डर का डेमो दिखाकर समझाया कि डर लगना क्या होता है।
लेकिन, हाय रे! ये कोशिश! ये मेहनत! थोड़ी ही देर में सारी बेकार हो गई। उन्माद दूध के झाग की ही तरह पानी बनकर बहने लगा। डर का माहौल मलमली गुफ्तगूं के पीछे छिप गया। मतलब कि साहित्य का सच फिर से नसीरुद्दीन शाह के डर को झूठा साबित करने पर लग गया। सड़कों पर पुतलों के स्थान पर जिंदगी चहकने लगी। काले झंडों ने खुशियों वाले रंग ओढ़ लिए। पांडाल में शोर की जगह शब्दों ने ले ली। नारें निगल कर संवाद धूप में खिलने लगे। राजनीति के इरादों को समाज के प्यादों ने मात दे दे दी। 80 वर्षीय नरेश सक्सेना ने अपने हाथों से दीप जलाकर उत्सव में उजालों को आमंत्रित किया। अनिरुद्ध उमट गोडसे-दर्शन को ग़ांधी का हिन्द स्वराज्य पढ़ाने लगे। सुधीर चंद्र सहज संभाषण से सहमे सन्नाटों को चीरने लगे। संपत सरल मुस्ताक अहमद युसूफ़ी के बहाने डराने वालो को डराने लगे। सैफ महमूद,परवेज आलम,अचला शर्मा सहित अपने लफ्जों- लहजे से नफरत की दीवारें ढहाने लगे। निर्भया अपने नाम के अनुरूप नारों को अनसुना कर कहानी कविताओं में गोते लगाने लगी। बच्चे अपनी किलकारियों से आजाद हो मुस्कुराने लगे और तो और खुद नसीरुद्दीन शाह निडर होकर अपनी पुस्तक पर चर्चाएं करने लगे। मानों पूछ रहे हो डर से डरने वाले कौन है ? हम या वे जो डराने के लिए युवा उम्मीदों की आंखों पर अंधेरा बांधकर समाज के गलियारों में छोड़ देते हैं।
कुल मिलाकर नसीरुद्दीन शाह ने झूठ कहा था कि उन्हें डर लगता है। वे कैसे कह सकते हैं कि उन्हें डर लगता है जबकि वे निडर होकर अपनी बात कह रहे हैं। संभवतः सुना गलत गया हो या समझा ठीक से ना गया हो। लेकिन सुनने समझने वाले लोग ऐरे- गैरे नहीं थे,। मीडिया के पुरोधा और देश के भाग्य विधाता थे। वे भला गलत या झूठे कैसे हो सकते हैं। हों, भी तो उन्हें कैसे कहा जा सकता है कि आप हो। उनके पास देश, धर्म, सच, झूठ को अपने हिसाब से मानने या ना मानने का अधिकार है। अगर आप उनके हिसाब से डरते हुए डर को डर कहेंगे तो अख़लाक़ से लेकर पीलूखां तक, पानसरे से लेकर गौरी लकेश तक, हरेन पांड्य से लेकर जज लाया तक, डर को डर मानाने की हिमाकत कर रहे थे। इतने उदाहरण और आप डर नहीं रहे हैं फिर भी कहते है कि आपको डर लगता है। तो नसीर साहब, बाताओं! आपको डर क्यो लगता है? आमिर खान! आप भी समझाओ कि सत्यमेव जयते का जाप करते हुए डर का झूठ कैसे बोल लेते हो ? साहित्यिक उत्सवों के आयोजकों! निडरता से आयोजन करने के बावजूद डरे हुए लोगो का साथ क्यों देते हो? ये सारे सवाल अपना जबाब मांगते है?
तो फिर नसीर से लेकर आमिर या अप्रसांगिक बुद्धिजीवी पता नहीं किस बात से डर रहे हैं। लगता है इन सबको भीड़ से नहीं, भीड़ के पीछे छुपे चेहरों से डर लगता है। वर्तमान उन्माद से नही, भविष्य की धरोहर से डर लगता है। साहित्योत्सव को अपने आयोजन के संपादन से नहीं, शब्द की सुचिता से डर लगता है। भावी पीढ़ियों की शिकायतों से डर लगता है। पूर्वजों की विरासत के खो जाने से डर लगता है। सत्ताधीशों को ये डर लगता है कि सच उनके चेहरे की शिनाख्त कर रहा है।सत्ता से लेकर समाज मे चारों ओर डर पसरा है लेकिन हम कह नहीं सकते कि हमें डर लगता है। डर को डराकर वे उससे कबूल करवाने पर आमादा हैं,” बोलो, डर नहीं लगता है।”
जी, हाँ! यूँ हमें डर नहीं लगता है। लेकिन लगता है। जो डर लगता है ,यह वैसा ही डर है जो हम अपने बच्चों से प्यार करते हुए लगता हैं कि वे शाम तक बिना रास्ता भूले वापस घर आ जाये। ये डर ऐसा ही है जो घने बादलों की ओट में सूर्य को कैद करते समय से लगता है। तूफान आने से पहले की शांति से लगता है। ऑपरेशन टेबिल के पास रखे मॉनिटर को देख कर लगता है। यह डर वह डर है जो खुद से, परिवार से, देश से, दूसरों से, बेइंतहा मोहब्बत करने से लगता है कि कहीं इस मोहब्बत को नजर ना लग जाये।
लेकिन अब नजर लग रही है। काली छायाएं हमारी परछाइयों को निगलने लगी है। वे ये सिद्ध करने पर आमादा है कि हमें डर लगता है। लेकिन खबरदार!जो कहा कि डर लगता है तो वे बता देंगे कि डर कैसे लगता है।
*रास बिहारी गौड़*