अक्साई चीन विवाद पर चीन चाहता है सौदेबाजी

-संजय सक्सेना, लखनऊ-
भारत सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में धारा 370 हटाए जाने के प्रस्ताव पर बहस के दौरान कई अहम मसले उठाए। खासकर,शाह ने नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी के एक सवाल का जबाव देते हुए जैसे ही गुलाम कश्मीर के साथ-साथ अक्साई चीन को भी भारत का हिस्सा बताते हुए अपनी सरकार के रूख को स्पष्ट किया,वैसे ही लम्बे समय से भूला सा दिया गया अक्साई चीन का मुद्दा फिर से ताजा हो गया। गूगल पर अक्साई चीन तलाशा जाने लगा। सोशल मीडिया पर भी इस पर बहस शुरू हो गई। चीन और भारत के बीच सीमा विवाद को लेकर 1962 में युद्ध भी लड़ा जा चुका है। अक्साई चीन पर भारत की दावेदारी का जब भी सवाल उठता है तो चीन अक्साई चीन को छोड़ने के बदल अरूणाचल प्रदेश के तवांग पर करने लगता है सौदेबाजी।
अक्साई चीन और उसके इतिहास तथा जुड़े विवाद को समझने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि अक्साई चीन की भौगोलिक स्थिति क्या है। चीन, पाकिस्तान और भारत के संयोजन में तिब्बती पठार के उत्तर पश्चिम में कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे स्थित है। ऐतिहासिक रूप से अक्साई चीन भारत को रेशम मार्ग से जोड़ने का जरिया था। अक्साई चीन हजारों साल से मध्य एशिया के पूर्वी इलाकों (जिन्हें तुर्किस्तान भी कहा जाता है) और भारत के बीच संस्कृति, भाषा और व्यापार का रास्ता रहा है। भारत से तुर्किस्तान का व्यापार मार्ग लद्दाख और अक्साई चीन के रस्ते से होते हुए काश्गर शहर जाया करता था।
1950 के दशक में यह क्षेत्र चीन ने जबर्दस्ती कब्जा लिया और अब इस पर वह सौदेबाजी करता है। वहीं भारत इस पर अपना दावा जताते हुए इसे जम्मू -कश्मीर राज्य का उत्तर पूर्वी हिस्सा मानता है। अक्साई चीन जम्मू और कश्मीर के कुल क्षेत्रफल के पांचवें भाग के बराबर है। चीन ने इसे प्रशासनिक रूप से शिनजियांग प्रांत के काश्गर विभाग के कार्गिलिक जिले का हिस्सा बनाया है।
अक्साई चीन लगभग 5,000 मीटर ऊंचाई पर स्थित एक नमक का मरुस्थल है।इसका क्षेत्रफल 42,685 किमी (16,481 वर्ग मील) के आसपास है। भौगोलिक दृष्टि से अक्साई चीन तिब्बती पठार का भाग है और इसे ‘खारा मैदान’ भी कहा जाता है। यह क्षेत्र लगभग निर्जन है और यहां पर स्थायी बस्तियां नहीं है। इस क्षेत्र मे ‘अक्साई चीन’ (अक्सेचिन) नाम की झील और ‘अक्साई चीन’ नाम की नदी है। यहां वर्षा और हिमपात ना के बराबर होता है क्योंकि हिमालय और अन्य पर्वत भारतीय मानसूनी हवाओं को यहां आने से रोक देते हैं।
अक्साई चीन के बारे में भारत का आरोप है कि चीन ने जम्मू-कश्मीर की 41180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर गैर कानूनी कब्जा कर रखा है। इसमें 5180 वर्ग किलोमीटर अक्साई चीन का लद्दाखी क्षेत्र है। चीन, सीमा का निर्धारण करने वाली मैकमोहन रेखा को नहीं मानता। चीन अरुणाचल प्रदेश की 90 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर भी अपना दावा करता रहा है।
भारत के जम्मू कश्मीर से सटा है अक्साई चीन, चीन के जिनजियांग प्रांत से सटा हुआ है। अक्साई चीन से होकर गुजरता है जिनजियांग-तिब्बत हाइवे जो चीन की है। वो सड़क जो इस इलाके में चीन के आधिपत्य की कहानी लिखती है। ये वो इलाका है जहां से काल्पनिक मैकमोहन लाइन गुजरती है और दोनों मुल्कों को अलग करती है। नक्शे पर उकेरी गई यही लकीर दरअसल 1896 मेें एलएसी यानि वास्तविक नियंत्रण रेखा के तौर पर देखी गई। जिसे भारत चीन के साथ अपनी सरहद मानता है। पहले इस इलाके को नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी कहा जाता था यानि आज का अरुणाचल प्रदेश। लेकिन चीन अरुणाचल प्रदेश को भी अपना इलाका करार देता है और सिक्किम में भी दखलंदाजी करता रहता है। 1962 में इसी इलाके में भारत-चीन की जंग भी हुई थी।
इतिहास बताता है कि चीन ने जब 1950 के दशक में तिब्बत पर कब्जा किया तो वहाँ कुछ क्षेत्रों में विद्रोह भड़का, जिनसे चीन और तिब्बत के बीच के मार्ग के कट जाने का खतरा बना हुआ था।चीन ने उसी समय शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग का निर्माण किया था, जो अक्साई चीन से निकलता है और चीन को पश्चिमी तिब्बत से संपर्क रखने का एक और जरिया देता है। भारत को जब यह ज्ञात हुए तो उसने अपने इलाके को वापस लेने का यत्न किया।
1957 तक तो भारत को ये तक पता नहीं चल सका कि चीन ने अक्साई चीन के इसी विवादित हिस्से में सड़क तक बना ली है। 1958 में चीन के नक्शे में पहली बार ये सड़क प्रकट हुई। यह 1962 के भारत-चीन युद्ध का एक बड़ा कारण बना। वह रेखा जो भारतीय कश्मीर के क्षेत्रों को अक्साई चिन से अलग करती है ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ के रूप में जानी जाती है। अक्साई चीन भारत और चीन के बीच चल रहे दो मुख्य सीमा विवाद में से एक है। चीन के साथ अन्य विवाद अरुणाचल प्रदेश से संबंधित है। समय-समय पर कई देशों ने अरूणाचल विवाद सुलझाने के लिए मध्यस्थता की भी कोशिश की।इसमें अमेरिका भी शामिल था।
चीन ने 24 अक्टूबर 2016 को अमेरिका को चेतावनी दी कि चीन-भारत सीमा विवाद में उसका कोई भी हस्तक्षेप इस विषय को ‘और भी पेचीदा’ बनाएगा और सीमा पर कड़ी मेहनत से हासिल की गई शांति में खलल डालेगा। अमेरिकी राजदूत के अरुणाचल प्रदेश दौरा के कुछ दिनों बाद चीन ने यह चेतावनी दी थी। चीन अरुणाचल के दक्षिण तिब्बत होने का दावा करता है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लु कांग ने एक मीडिया ब्रीफिंग में अमेरिका से भारत-चीन सीमा विवाद में हस्तक्षेप करने से बचने को कहा। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू के निमंत्रण पर अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा 22 अक्तूबर 2016 को वहां गए थे। रिचर्ड की उस यात्रा का उल्लेख करते हुए लू ने कहा कि अमेरिकी राजदूत ने एक विवादित क्षेत्र का दौरा किया है। उन्होंने कहा, ‘हमने इस बात का संज्ञान लिया है कि अमेरिका के वरिष्ठ राजनयिक अधिकारी ने जिस जगह का दौरा किया है वह चीन और भारत के बीच विवादित क्षेत्र है। हम इस यात्रा के पूरी तरह खिलाफ हैं।’
चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताता है और इस इलाके में भारतीय नेताओं, विदेशी अधिकारियों तथा दलाई लामा की यात्रा का नियमित विरोध करता है। लु ने समाधान निकालने के लिए दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की अगुवाई वाली विशेष प्रतिनिधियों की प्रणाली का जिक्र करते हुए कहा, ‘चीन-भारत सीमा के पूर्वी क्षेत्र को लेकर चीन की स्थिति बहुत स्पष्ट है और एक जैसी है। दोनों देश बातचीत और परामर्श के माध्यम से क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं।’ दोनों पक्षों ने 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए विशेष प्रतिनिधियों की 19वें दौर की वार्ता की थी। चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत कहता है वहीं भारत का मानना है कि अकसाई चीन को लेकर विवाद है जिस पर चीन ने 1962 की जंग में कब्जा कर लिया था। लु ने कहा, ‘किसी भी तीसरे पक्ष को जिम्मेदारी की भावना के साथ शांति, सुलह और अमन के लिए चीन और भारत के प्रयासों का सम्मान करना चाहिए।’ उन्होंने कहा कि अमेरिका का व्यवहार चीन और भारत के प्रयासों के प्रतिकूल है।
दरअसल,अक्साई चिन और तवांग को लेकर भारत और चीन के बीच होने वाले संभावित समझौते को लेकर चीन का मकसद कुछ और ही है। चीन अक्सर यह बात दोहराता रहता है कि अगर भारत उसे अरुणाचल का तवांग वाला हिस्सा लौटा दे, तो वह अक्साई चिन पर कब्जा छोड़ सकता है। अरुणाचल प्रदेश का तवांग, तिब्बत का एक अभिन्न हिस्सा है. ऐसे में तब तक सीमा विवाद को नहीं सुलझाया जा सकता जब तक कि पूर्वी क्षेत्र में भारत कोई रियायत देने पर सहमत नहीं होता।
अरुणाचल प्रदेश के प्रसिद्ध बौद्ध स्थल तवांग के बदले चीन पूर्वी क्षेत्र में ‘लेन-देन’ वाली बात 2007 में सीमा विवाद सुलझाने के लिए वर्किंग ग्रुप की घोषणा के ठीक बाद चीन ने की थी, जिससे पूरी बातचीत खटाई में पड़ गई थी। वहीं भारत का तिब्बत के मुद्दे पर नरम रुख चीन के लिए हमेशा से ही परेशानी का सबब बनता रहा है। ऐसे में भारत यदि चीन के प्रस्ताव को मान लेता है तो सबसे बड़े मठ उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाएगा, जिसके बाद उसका तिब्बत पर नियंत्रण काफी कुछ सरल हो जाएगा। चीन अरुणाचल को तिब्बत से अलग करने वाली मैकमोहन रेखा को नहीं मानता है। भारत और चीन के बीच पिछले 32 सालों में विभिन्न स्तरों पर दो दर्जन से अधिक बैठकें हुई हैं और इन सभी बैठकों में चीन तवांग को अपना हिस्सा बताता रहा है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि तवांग में बौद्ध भिक्षुओं का सबसे बड़ा मठ है और चूंकि तिब्बत इसको लेकर हमेशा से ही संवेदनशील रहा है और वहां से मिले आदेश का पालन भी करता रहा है, लिहाजा यहां से तिब्बत को साधना उसके लिए मुश्किल नहीं रहेगा।
तवांग पर चीन की नजर ऐसे ही नहीं है। तवांग भारत-चीन सीमा के पूर्वी सेक्टर का सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण इलाका है। तवांग के पश्चिम में भूटान और उत्तर में तिब्बत है। 1962 में चीनी सेना ने तवांग पर कब्जा करने के बाद उसे खाली कर दिया था, क्योंकि वह मैकमोहन रेखा के अंदर पड़ता था। लेकिन इसके बाद से चीन तवांग पर यह कहते हुए अपना हक जताता रहा है कि वह मैकमोहन रेखा को नहीं मानता। चीन तवांग को दक्षिणी तिब्बत कहता है, क्योंकि 15वीं शताब्दी के दलाई लामा का यहां जन्म हुआ था। चीन तवांग पर अधिकार कर तिब्बती बौद्ध केंद्रों पर उसकी पकड़ और मजबूत करना चाहता है। सामरिक नजरिए से तवांग को चीन को देना भी भारत के लिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।
अक्साई चिन और तवांग में चीन और भारत के अलावा पाकिस्तान भी एक एंगल है। भविष्य में कभी भी अक्साई चीन और तवांग के लिए चीन और भारत के बीच होने वाले समझौते में पाकिस्तान एक सबसे बड़ी रुकावट बन सकता है। इसका कारण अक्साई चिन का वह क्षेत्र है जो सीधे तौर पर पाकिस्तान से मिलता है। इसकी एक बड़ी वजह चीन और पाकिस्तान के बीच बन रहा आर्थिक कॉरिडोर भी है। इस पर चीन काफी पैसा खर्च कर रहा है। इसके जरिए चीन अपना बाजार बढ़ाना चाहता है और साथ ही वह पूर्व के सिल्क रूट को दोबारा उजागर करना चाहता है। जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख से पूरी दुनिया अच्छे से परिचित है। यही वजह है कि वह इस समझौते को कभी मंजूर नहीं करेगा,लेकिन कश्मीर से धारा 370 खत्म होने के बाद हालात बदले हैं। अब पाकिस्तान के ऊपर पीओके छोड़ने का दबाव बना रहा है। मोदी सरकार ने पाकिस्तान की नींद उड़ा रखी है।

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